ईगॅसपोतमी में एथेंसवासियों की बरबादी,
और फिर हमारी अंतिम पराजय के बाद
मुक्तचर्चाएँ, पेरीक्लीय मनीषा, कलाओं की श्रीवृद्धि,
व्यायामशालाएँ, दार्शनिकों की संगोष्ठियाँ;
सभी कुछ उठ गया।
अब बस उदासी है, हाट-बाज़ार में एक भारी चुप्पी
और तीस ज़ालिमों की ग़लाज़त।
हर बात (हमारी बेहद निजी क़िस्म की भी)
बिना किसी प्रतिवेदन, बचाव या सफ़ाई के,
यहाँ तक कि रस्मी विरोध के भी बिना
महज़ चूक से घटित होती। हमारी किताबें और काग़ज़ात जला दिए गए
और राष्ट्रीय मर्यादा का कोई मतलब नहीं रह गया।
अगर किसी पुराने-गहरे दोस्त को भी गवाही के बतौर
पेश करने की इजाज़त होती
तो वह मुकर जाता; ऐसे ही किसी झंझट में पड़ने के डर से।
उसे ग़लत तो नहीं ही कहा जा सकता। लिहाजा ग़नीमत है कि यहाँ हूँ।
कौन जानता है कि कँटीले तारों के पीछे से
समुद्र के एक हिस्से को, स्फटिकों को घासपात को, या कि
सूर्यास्त के वक़्त के किसी तिरते निगूढ़ बैंजनी मेघ खंड को
निहारते हुए प्रकृति का ताज़ा सान्निध्य पा सकूँ!
यह भी हो सकता है कि किसी दिन उसी गरुड़ की अदृश्य अगुआई में
एक नया 'किमोन' आ पहुँचे, और ज़मीन खोदकर
हमारे लौहबरछे की नोंक ढूँढ़ निकाले ज़ंग-खाई—
वह भी अब बेकार हो चुकी होगी लगभग।
मुमकिन है वह उसे लेकर एथेंस जाए और किसी मातमी जुलूस में
दिखलाए/या कि ढोल-ताशे और गुलदस्तों के साथ
फ़तह की पताका की तरह फहराए!
- पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 235)
- रचनाकार : यानिस रित्सोस
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2003
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