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डॉ. आम्बेडकर 1986

Dr ambeDkar 1986

नामदेव ढसाल

नामदेव ढसाल

डॉ. आम्बेडकर 1986

नामदेव ढसाल

उत्तर की हवाओं से मेरी नदी कानाबाती कर रही है

मैं गा रहा हूँ तुम्हारा गीत

प्रेम की आँखें नहीं होनी चाहिए

प्रेषितों के प्रषितों ने भी गिरना चाहिए तुम्हारे चरणों पर

कितना निश्छल तुम्हारे-मेरे बीच का ऋणानुबंध

सदियों की पाषाण-निद्रा से जगाया तुमने

हमें

कर दिया हमारा पुनरुत्थान

अब हमारी अभिलाषाओं के खेत में उग आता है सबकुछ

स्टेनगन और गुलाब के फूल

तुमने ही कहा था किसी दिन विस्फोट होगा इसका

शांति अपने पैरों पर खड़ी होकर मुक्त हो जाएगी

परछाई पर का लांछन धो दिया जाएगा

दिन का नहीं होगा पर्दा फ़ाश

तूने बख़्श दी है हमें रोज़ी-रोटी

तथा आतुर विवस्त्र चंद्रमा

परस्पर हेतुओं का सुघड़ हाथ

दया का ही एक रूप होता है समुद्र

अब मेरी बात की दीवार को कुतरते नहीं चूहे

अपने आप को हलाक करने की सभी कोशिशें नाकाम हुई मेरी

गहरे-हरे टेबिल पर की ज़िंदगी

घास ने ही निगल लिया है स्याह गाय को

सात परतों का मेरा निरंतर आकाश

उसमें झूलने वाला नक्षत्र का झाड़-फानूस

कितना अद्भूत चमत्कार

किसकी हिम्मत है

इस आईने के भीतर हमारे बिम्बों को

मिटाने की

हमारे प्रियतर ऋतु लौट गए हैं फिर से बस्ती में

दानापनी और कपड़ा-लत्ता अब हमारे लिए नहीं है दुर्लभ

और दो रातों के बीच का वह अद्भुत संगीत भी

कस्तूरी की गाँठ गई है बाहर

हर कोई ढूँढ़ रहा है अपनी मादी को

हमारे हृदयों पर के फ़ौलादी अस्तर को

फाड़ दिया है तुमने

अब नहीं है हम काँसे के ढले हुए पुतले

जाने कब से इकट्ठा हुआ था नर्क हमारे अंतःकरण में

तुमने हटाया उसे जादुई छड़ी घुमा कर

भर दिया हृदय का घट अमृत से

उसी क्षण हमारे देह-भीतर के जानवर

मर गए पटापट

हम बन गए जीते-जागते आदमी

हमारा मरा हुआ ख़ून लहलहाने लगा फिर से

वह हो गया तलवार के फल से भी ज़्यादा ज़ालिम

सचमुच इतना बल कहाँ से दिया तुमने हमें

चेहरों पर से सभी मुखौटों को हटा कर मुझे जगाने दो

तुम्हारे-मेरे बीच के दायित्व को

मैं इतना अनाड़ी नहीं हूँ

कि हर सवाल का जवाब माँग लूँ तुमसे

आख़िरी तृष्णा का घर ध्वस्त कर मैं रहा हूँ तुम्हारे पास

तुम्हारे सम्मुख

मैं जानता हूँ हो गया है मेरे युग का सवेरा

अब बसाया जाएग मिट्टी की नगरी को

जिसमें नहीं होगा कड़ी क़ैद का अँधेरा

जिसमें नहीं होगा रोज़मर्रा यातनाओं का महाभयानक फैसला

विच्छन्नता के आकाश के बाद

टूट गई हैं झट् से कसी हुई मुश्कें

और आख़िरकार मेरे लोगों की स्वतंत्रता बन गई है अबाध

अब यहाँ कोई नहीं है बद-क़िस्मत

हर किसी के दिन हो गए हैं लक-लक घोड़ों-जैसे

हर किसी को आती है बू जलते बालों की

क्रोध के चमकते नमक के बाद

जड़ पकड़ी है यहाँ की अनुर्वर ज़मीन में विद्रोह के सपने ने

अब हमारे दरवाज़ों के सामने झूलते हैं सफ़ेद हाथी

अब चुस्त भाषा की टहनी ऐसी ही झूलती रहेगी

नए इतिहास की रचना होगी

कभी निद्रा में कभी जाग्रति में

हर्ष के बवण्डर से खेल रही है मेरी किश्ती

महासागर भी महसूस होता है मुझसे छोटा बग़ावत करते हुए

मैं रहा हूँ आगे-आगे

मैं नहीं बताता मेरे चेहरे को नया बना कर

पानी की एक-एक दीवार टूट रही है

मुझे होने दे तेरे सभी बच्चों में से सब से सुंदर

अब मौत का गवाही है अश्वत्थ का पत्ता

मैं अपनी देह के पाँवड़े बिछाकर

इंतज़ार कर रहा हूँ तुम्हारे आदेश का

अब इस

ज्वालामुखी की बेल को कहाँ लगाऊँ मैं?

स्रोत :
  • पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 111)
  • संपादक : चंद्रकांत पाटील
  • रचनाकार : नामदेव ढसाल
  • प्रकाशन : साहित्य भंडार
  • संस्करण : 2014
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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