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हिप्पोपटोमस

hippoptomas

श्याम परमार

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हिप्पोपटोमस

श्याम परमार

और अधिकश्याम परमार

    इतिहास की गाँठें गल जाती हैं जब शहर का दिमाग़

    फिरता है। एक लावा होता है और लाशों की गंध

    नाली के पास चिथड़ों को नोचता अरस्तू सदियों को पीता है

    मगर थूकता है ख़ून के फ़व्वारे x x x

    x x x मरता कौन है?

    किसे वक़्त है इतना भी सोचने का? हर निमिष

    ज़मीन धड़कती है, उसमें दबी नाड़ियाँ टूटती हैं

    हवाएँ भागती हैं और कानोंकान संभावनाएँ जन्मती—

    समय को सूँघती हैं।

    किसी भी क्षण कोई कार या बस

    दुकान में घुस जाए, या बिजली के खंभों पर बँधे हुए तार

    यकायक जलकर एक दूसरे का सहारा छोड़ दें

    या अँधेरे में दिमाग़ की नसें बेचैन हो जाएँ

    हो सकता है रेस्तराँ में डिनर के बाद कुछ शरीर

    बेजान हो जाएँ (उनमें मेरा मित्र भी हो सकता है

    है या मैं ख़ुद भी हो सकता हूँ) और तुम्हें पता चले

    शहर के पेट पर सुबह होने के पहले बड़े-बड़े

    फफोले उठ आए हैं, और हर फफोले के पास

    लोगों के हुजूम बलग़म उगलते क्यू में खड़े हैं।

    XXX शहर के आकाश पर छड़ें तनी हैं तनाव में

    विक्षिप्त होता जा रहा है हर क़तरा दीवारों पर

    दर्द के साँप रेंगते हैं एक जंगल

    शहर की बाज़ुओं में धँसता है—बनैले नाख़ूनों की

    कचोट से फट जाते हैं पर्दे। पूजा के शंखों में

    दरारें पड़ जाती हैं और रविशंकर के सितार को

    वराह अपनी थूथन से तोड़ता है।

    दिमाग़ का मानचित्र एक नंगी लाचारी का शिकार

    होता जाता है। पता नहीं, स्वामीनाथन उसे किस रूप में आँकें

    किस रूप में हिम्मतशाह के रंग उसे सोखें।

    कहना कठिन है, एक-एक इंच पर कीलें गड़ी हैं

    या मौत? सड़कों की जंघाओं पर संस्कारों की कतरनें

    चिपकी हैं या साप्ताहिकों के कॉलम? सुना : इस वर्ष

    बहुत-सा आम बाहर गया। आकाश में घिरते पहाड़ों को

    गौरय्यों ने बाँधा। पर बंबई में

    लोकल गाड़ियाँ लड़ गईं और नगर की देह विचारों में

    उबलती रही। मेरे हाथ ने दूसरे हाथ को

    उखाड़ दिया। विद्युत में तरंगित चीख़ें

    फड़फड़ाईं—मगर सुनाई दी किलकारियाँ

    समय को दमा हो गया या कैंसर। हाँफते हुए निमिषों के

    हिप्पोपटोमस की आँखें बंद नहीं होती—अर्राता है

    उसका अहम्

    मगर पालम हो या सफ़दरजंग

    संस्कृतियाँ उतरती हैं हवाओं से हवाओं में विलीन

    हो जाती हैं, जैसे तुम्हारे लिए अनेक ख़याल आते हैं

    और बड़े ख़याल उन्हें खा लेते हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 99)
    • रचनाकार : श्याम परमार
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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