एक
मेरी हिंदी का अर्थ यही—
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे इतना है महाकाश, जिसमें नक्षत्रों का निनाद,
अविरत गति से होता रहता, उठता न कहीं कोई विवाद।
लघु लघु तारों को भी समेट, बनती ध्वनियों की धवल धार,
उस ज्योति पर्व में किरण किरण का, कितना है कोमल प्रसार!
गति द्रुत हो, या कि विलंबित हो,
गूँजे वीणा का तार-तार!
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे इतना व्यापक समीर, जिसमें न रहा है दिशा-भेद,
निर्गंध पुष्प को भी छूकर, जिसको न कभी कुछ हुआ खेद,
जो विषम प्रभंजन रूप तोड़ता, हठवादी सब शैल-शृंग,
पर नव प्रभात के द्वार द्वार पर सींच रहा छवि की उमंग!
ऐसा समीर जो साँस-रूप से
जीवन की करता पुकार!
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे जलती है महा अग्नि, ढलता जिसमें भीषण प्रकाश,
अज्ञान-रूढ़ियों के शव पर, हँसता है क्षण-क्षण महानाश।
रख छद्मवेश घन अंधकार जो छिपा रहा है क्षितिज-रेख,
उसके विघटन के लिए शक्ति बन हिंदी लिख दे भाग्य लेख।
निष्कलुष बने संपूर्ण विश्व,
मिट जाए भेद-गत अहंकार,
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी, तुम रहना निर्विकार!
जैसी बहती है सहज धार, जिसमें जीवन का है प्रवाह,
प्रतिपल आगे बढ़ने का ही, जिसमें व्रत है अनुपम अथाह,
जिसकी बूँदों के कण-कण में है नवल सृष्टि का तरल रूप,
जिसकी लहरों का सहज गीत तट की वीणा पर है अनूप।
दो
लघु बुद्बुद् ने भी मिट मिट कर
मानी जीवन में नहीं हार,
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे सजती है सृष्टि पुनः ले सुरभित तन्वंगी तरंग,
वैसी शोभा से सजे राग-रंजित हिंदी के सहज अंग।
संस्कृति के सुरभित सुमन सजें, भूषित हो सरस प्रयोग-वृंत,
बहुरंगी विहँगों के कलरव में स्वयं चला आए वसंत,
तब जन-मन के ही सुमन सजें,
बन सरस्वती के कंठ-हार,
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
- पुस्तक : कविश्री (पृष्ठ 37)
- रचनाकार : रामकुमार वर्मा
- प्रकाशन : सेतु प्रकाशन, झाँसी
- संस्करण : 1972
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