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मीत मत छेड़ो मुझे...

meet mat chheDo mujhe. . .

गौरव शुक्ल

गौरव शुक्ल

मीत मत छेड़ो मुझे...

गौरव शुक्ल

और अधिकगौरव शुक्ल

    मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।

    मौन मेरी साधना है, मौन ही संसार मेरा,

    मौन मेरी भावना है, मौन ही विस्तार मेरा।

    मौन मेरी व्यंजना, आशा, निराशा मौन मेरी,

    मौन मेरे प्रश्न, उत्तर मौन, मौन विचार मेरा।

    मौन ही भाषा हमारी, है समझ पाओ समझ लो,

    मैं स्वयं अपने लिए कुछ भी कहना चाहता हूँ।

    मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।

    महफ़िलों में था कभी, एकाँत पाकर आज ख़ुश हूँ,

    आँधियों में दीप प्राणों का जलाकर आज ख़ुश हूँ।

    भीड़मय सड़कें शहर की,भी कभी अच्छी लगी थीं,

    गाँव की सूनी मगर, पगडंडियों पर आज ख़ुश हूँ।

    शुद्ध एकाकीपना ही रास अब तो रहा है,

    फिर जगत के इन प्रपंचों में पड़ना चाहता हूँ।

    मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।

    कुछ दिवस पहले हमारे भी अधर थे खिल-खिलाए,

    मुँह हमारा देखते थे लोग आशाएँ लगाए।

    पर समय का चक्र कुछ ऐसा चला है, ढह गए हैं—

    कल्पनाओं के भवन, जो थे हृदय ने, कल बनाए।

    दाह, कुँठा, वेदना अब तो प्रकृति ही बन चुकी है,

    छोड़ने की फिर इसे कोशिश करना चाहता हूँ

    मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।

    हाँ, कभी वाचालता भी,अनुचरी मेरी रही थी,

    कर गई उद्वेल जन को, वह कथा मैंने कही थी।

    जो चली सुख शाँति देती हर किसी को, वाक्-गंगा—

    वह, हमारे ही हृदय रूपी हिमालय से बही थी।

    किंतु कड़ुवाहट हृदय की, शब्द में भी भर गई अब,

    बोलकर तुमसे तुमको ,रुष्ट करना चाहता हूँ।

    मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : गौरव शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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