हे मृत्यु!
जब पूरे आसमान पर अपना पंजा फैलाकर
लंबे नखों की धारदार पट्टी तू
गहरे गले पर दबाता है
और प्राण हरण करके ले जाता है।
तब मैं
पलक भी न झपकते हुए
तेरी ओर ठंडे देखते रहता हूँ।
हे मृत्यु!
जब कोई बाजे के जुलूस और कोलाहल में
नहीं, नहीं, नहीं कहते हुए
गर्दन हिलाते हुए तेरे पास आते हैं
चींटी-चींटी आते हैं
पैरों के नीचे के रास्ते पर
बाल बिखेरकर लटकते हैं
सूजी हुई आँखों पर
तब मैं
कोने में की लकड़ी उठाकर
धीमे पैरों से
तालाब के किनारे पर जाता हूँ
और देखता रहता हूँ—
अंत समय का सौम्य मृदु प्रतिबिंब
और आँखें मेरी भर उठती हैं
हे मृत्यु!
तू और तेरा साथी
मेरा पुराना मित्र परमेश्वर
मिलकर आकाश में गुँजाते हो—पाप, पाप
और छाती पीटकर काले
वस्त्रों का लबा लंबा जुलूस बहता है
न किये हुए पाप के लिए शोक करते हुए,
तब मैं
तोतई खेत-मैदान पर शांति से बैठा रहता हूँ
और तोड़ लेता हूँ
अभी-अभी खिला हुआ बनफूल
उसे छाती से लगाकर आँखे मूँद लेता हूँ
और मन के पाताल में गहरे-गहरे
शुभ्र झरने बहते हुए दिखाई देते हैं
कल्प-कल्पात के।
हे मृत्यु!
तेरे संहार की
कब्रों की, क्रूसो की पाँत की-पाँत देखकर
आँखें एकदम बंद हो जाती है
तेरे भय से
तेरे साथी—परमेश्वर को पुकारा जाता है।
भरे हुए भर्राये गले से
तब मैं अपने छोटे-से बालक को उठा लेता हूँ
उसकी चमकीली आँखों की ओर देखते हुए
उसके नरम बालों पर धीमे से सिर रख देता हूँ
और हृदय में देखता हूँ, तो क्या?...
असंख्य तारे चमकते रहते हैं।
फिर तुम क्यों हो?
किसलिए हो
हो भी?
ऐसा विचार आता है न आता है त्यों ही
ज़रा क्षण-भर दर्द उठकर माँ बेहोश हो जाती है
(जैसे नहीं हो यों हो जाती है,
मानो तुम्हारी जीत होती है)
और अकस्मात् अवतरित होता है
'टयाँ हो-टयाँ हो' करते हुए नये जनमे बच्चे का क्रंदन
जंगल की लाखों कलियाँ
घास में एकदम खिल उठती हैं।
और तत्काल समझ में आता है
कि तेरे काले साम्राज्य का मूल स्तंभ कहाँ है?
संतोष से मेरे ओंठ
थोड़े से खुलते हैं
ज़रा से।
क्योंकि मुझे तेरा स्पर्श कभी भी नहीं हुआ था
नहीं तो, आज हज़ारों वर्ष तक—
जन्मोत्सव ही देखता आया हूँ ना
जन्मोत्सव ही!!
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 613)
- रचनाकार : शरच्चंद्र मुक्तिबोध
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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