वे हमेशा बच्चों की ख़ाली स्लेट की तरह दिखते
जिस पर बच्चे जो चाहते उकेरते रहते
कभी कोई अक्षर
कभी चिड़ियाँ तो कभी फूल
उनके शरीर से अतीत की गंध आती
वे ज़मीन के भीतर पड़े उस पत्थर की तरह थे
जिनके पास उस नगर के विध्वंस की पूरी कहानी थी
लेकिन जो अब भी
वैसे ही किसी ख़ुदाई में छूट गए
अवशेष की तरह पड़े थे
जब भी वे बातें करते
लोग यह समझ लेते
जैसे वे प्राचीन इतिहास की
किसी नगर के उत्थान-पतन की कहानी दुहरा रहे हैं।
उस समय वे एक इतिहासकार की तरह दिखते
जबकि वे अपने ही समय की बातें सुना रहे होते
हमारे समय की यह कैसी त्रासदी है
कि उनकी सादगी लोगों को उनका
अभाव दिखता
या फिर ईमानदार कहलाने का स्वार्थभरा सनकीपन
वे समूह की गंध से भरे
बाज़ार के सटोरियों से निर्मित राष्ट्राध्यक्ष की
आँखों में किरकिरी की तरह खटकते
धर्मांध चटोरों को ललकारते
अपने ‘फ़ेसबुक' वाले अघाए कवि मित्रों के
लाइक-डिसलाइक से दूर
दुनिया को बदलने के सपने से भरे
शहर की छाती में उभरी टीस थे
वे नए उभरते चालाक संबंधों से दूर खड़े
शहर के दुःख थे
यह दुःख किसी व्यक्ति का हो सकता है
समूह का हो सकता है
इसका नाम आलोक या कुछ और भी हो सकता है।
- पुस्तक : हे गार्गी (पृष्ठ 101)
- रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
- प्रकाशन : रश्मि प्रकाशन
- संस्करण : 2018
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