इन फ़ीरोज़ी होंठों पर बर्बाद
मेरी ज़िंदगी!
गुलाबी पाँखुरी पर एक हल्की सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर!
इन फ़ीरोज़ी होंठों पर!
तुम्हारे स्पर्श की बादल-घुली कचनार नरमाई!
तुम्हारे वक्ष की जादूभरी मदहोश गरमाई!
तुम्हारी चितवनों में नरगिसों की पात शरमाई!
किसी भी मोल पर मैं आज अपने को लुटा सकता
सिखाने को कहा मुझसे प्रणय के देवताओं ने
तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब-सा इंद्रधनुषी स्वाद!
मेरी ज़िंदगी बर्बाद!
इन फ़ीरोज़ी होठों पर मेरी ज़िंदगी बर्बाद!
मृनालों-सी मुलायम बाँह ने सीखी नहीं उलझन,
सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप-जैसा तन,
अँधेरी रात में खिलते हुए बेले सरीखा मन।
पँखुरियों पर भँवर के गीत-सा मन टूटता जाता,
मुझे तो वासना का विष हमेशा बन गया अमृत,
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप में आबाद!
मेरी ज़िंदगी बर्बाद!
इन फ़ीरोज़ी होठों पर मेरी ज़िंदगी बर्बाद!
गुनाहों से कभी मैली हुई बेदाग़ तरुनाई?
सितारों की जलन से बादलों पर आँच कब आई?
न चंदा को कभी व्यापी अमा की घोर कजराई!
बड़ा मासूम होता है गुनाहों का समर्पन भी!
हमेशा आदमी मजबूर होकर लौट आता है।
जहाँ, हर मुक्ति के, हर त्याग के, हर साधना के बाद!
मेरी ज़िंदगी बर्बाद,
इन फ़ीरोज़ी होठों पर मेरी ज़िंदगी बर्बाद!
- पुस्तक : दूसरा सप्तक (पृष्ठ 164)
- संपादक : अज्ञेय
- रचनाकार : धर्मवीर भारती
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2012
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