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गुलाब के पौधे का गीत

gulab ke paudhe ka geet

अनुवाद : रत्नमयी देवी दीक्षित

ओ.एन.वी. कुरुप

ओ.एन.वी. कुरुप

गुलाब के पौधे का गीत

ओ.एन.वी. कुरुप

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    एक

    इस गुलाब के पौधे में खिले सभी पुष्पों में

    किसी अरुणिमा का नृत्य देखकर कुछ लोगों ने आँखे मूँद लीं।

    निर्निद्र निशाओं में अपने हृदय का रक्त

    सींच-सींचकर इनके प्रत्येक दल को मैंने यह रंग दिया।

    सहसा किसी ने कहा—फूलों के कृश डंठलों में,

    हाय! कितने पैने काँटे चुभने को खड़े हुए हैं!

    हे निंदे! तुम अपना हाथ मेरी ओर क्यों बढ़ाती हो?

    तुम्हारा रक्त अशुद्ध है, मेरे शरीर में मत लगाओ!

    वेदना के कंटकमय प्राकारों के अंदर भी मेरा जीवन

    पुष्प में मदहास बुनकर तैयार करने के लिए प्रस्फुरित होता है।

    दो

    जीवन, एक सुंदर निर्झरिणी के जैसा, किसी वन के

    हृदय में कलकल भरता हुआ जब जागा,

    तब उस नदी तीर पर था मैं! उस दिन वह पहला

    कुसुम जो विकसित हुआ, उसके नन्हे कपोलों पर मैंने फैला दिया

    कुकुम-संपुट जैसा अपने हृदंत का राग!

    उस दिन भूमि का कला-बोध उसको देखता हुआ जाग उठा।

    पूविळी करते हुए, नन्हे-नन्हे हाथ फैलाकर नृत्य किया

    जीवन ने, मेरे चारों ओर एक कोमल गान गाते हुए—

    नन्हे-से फूल, मेरे लाल-लाल फूल,

    इतने दिनों तक कहाँ गए थे

    फूल तोड़ने आने वाले जीवन के लिए

    प्रभात-पुष्पोपहार पिरोने को मेरा हृदय प्रस्फुरित होता है।

    तीन

    मनोहर वसंत के मधुमय स्रोत

    किसी के द्वारा निर्मित हिमशय्या पर जब सो रहे थे,

    और यह गुलाब का पौधा पुलकित होकर अपने हृदय-संपुट में

    नया अंगराग जब तैयार कर रहा था,

    तब कली ही सूख गई और पौधा खड़ा रहा—निरंतर अनुकंपा

    प्रवाहित करने लगे कुछ लोग, और कुछ लोग फुलझड़ियाँ छोड़ने लगे

    आँसू पोछने से गीली अंगुलियों के साथ

    जीवन गद्गद् गान करता हुआ फिर से आया।

    *पूविळी : ओणम् त्योहार के दिनों में नित्य प्रात:काल बच्चे “पू-पू” (फूल-फूल)

    आवाज़ लगाते मित्र-मंडली को एकत्र करते हुए फूल तोड़ने जाते हैं। इस पुकार

    को “पूविली” कहा जाता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 637)
    • रचनाकार : ओ.एन.वी. कुरुप
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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