Font by Mehr Nastaliq Web

फाटक

phatak

अनुवाद : वर्षादास

सितांशु यशश्चंद्र

मेरे गाँव का एक फाटक मैं खोल आया हूँ

लुटेरे के आने का कोई अंदेशा नहीं

किसी ने मुझे धोखा देने के लिए कोई घूस दी नहीं

फिर भी।

रात हो गई है

गाँव के लोग लालटेन हौले-हौले बुझाने लगे हैं और कई जगह

अँधेरे में जलती बीड़ियाँ धीरे-धीरे जल जाती हैं

पूरी तरह, और इस ठंड में अलाव के पास भटकते लोग सो गए

फिर अलाव भी भटकते लोगों के पास सो जाता है धीरे-धीरे

और कुत्ते।

रात हो गई है

और आकाश में मानो जादुई अदा से झप-से

तारे दिखने लगे हैं, एक यह?

एक वहाँ? एक वहाँ?—मज़ा रहा है।

मेरे गाँव का फाटक यहाँ से दिखता नहीं।

शायद उस ओर का चौकीदार बंद भी कर आया होगा

यह कौन भुलक्कड़ बेवक़ूफ़...यूँ बड़बड़ाते हुए

लेकिन मैंने तो जान-बूझकर फाटक खुला रखा था

हालाँकि किसी ने मुझे घूस नहीं दी थी, धमकी या वचन।

फिर भी मैं भी, वह चौकीदार जो बड़बड़ाया होगा

उन शब्दों को बड़बड़ा लेता हूँ : भुलक्कड़, बेवक़ूफ़...

एक और तारा निकलता है...

लेकिन फाटक से कोई नहीं आता।

स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक गुजराती कविताएँ (पृष्ठ 50)
  • रचनाकार : सितांशु यशश्चंद्र
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2020

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY