गोरख पांडेय! तुम्हारे नाम—
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जो चाहे लिख लो
बस आत्मघात नहीं
तुम कोई सन्नाटा बुनने वाले नहीं
सपने बुनने वाले कवि हो
सपने जिनमें
सिंकती हुई रोटी की गंध होती है
बंद कमरे में आहिस्ता से खुलती
तुम खिड़की होती है
तुम्हारे लिए कविता
आत्ममुग्धता की हिलोरें नहीं
बीज बीना है खेत में
तुम शब्दों को मोड़ते हो
बीज के पक्ष में
तुम्हारी बाट जोहती है
कैथरकला की औरतें
तुम्हारी बाट जोहती है
रद्दी बीनते बच्चे
तुम्हारी बाट जोहते हैं
चिमनियों से बेदख़ल किए जाते मज़दूर
और ऐसे ही तमाम लोग
गोरख पांडेय! तुम सादतपुर जाओ
वहाँ धूल है बच्चों के साथ खेलती हुई
कवियों की पत्नियाँ हैं
रसोईघर में तरकारी छौंकती
दोस्ती गाँठ सकते हो
बाबा (नागार्जुन) की तरह
किसी भैंस वाली से
रोज़ ताज़ा गाढ़ा दूध पहुँचा देगी
खैनी का आदान-प्रदान कर सकते हो रमाकांत जी से
अड्डा जमा सकते हो
दुकान पर पंत जी की
बहुत लोग हैं
तुम्हारी धोती फींचकर सुखा देंगे
बहुत लोग हैं
दाल-चावल-चटनी परोसेंगे
बच्चे अपनी कॉपियों से
पन्ने फाड़कर देंगे तुम्हें
स्याही देंगे दवातों से
क़लम निकाल लाएँगी भारी-बस्तों से
तो तय रहा साथी!
सब कुछ लिखोगे,
बस आत्मघात नहीं।
- पुस्तक : यह हरा ग़लीचा (पृष्ठ 50)
- रचनाकार : निर्मला गर्ग
- प्रकाशन : यात्री प्रकाशन
- संस्करण : 1992
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