गोह की कविता
goh ki kawita
एक
इसका नाम तोरो:द भी है
शायद तुम इस नाम को नहीं जानते
मुंडा ऐसे ही कहते हैं
गोह को अपनी भाषा में
ऐसी ही कई भाषाएँ हैं
जिसमें गोह को कहा जाता है
इस तरह तुम कह सकते हो
गोह एक नहीं है
कई गोह हैं तुम्हारे ही आस-पास
लेकिन तुम कहते हो
गोह विलुप्त हो रहे हैं
मुझे तुमसे इतना ही कहना है कि
भाषाएँ यूँ ही नहीं मरती
एक गोह मरता है
और एक भाषा मर जाती है।
दो
पुराने समय में जिनके राजा थे
उनकी प्रजा कहती है गोह की कथा
वे कहते हैं गोह दीवार से चिपक जाता है
और उसकी पूँछ पकड़ कर
उसके सैनिक क़िला भेद लेते थे
पुराने समय की बात
आज भी सच है
गोह अब भी अपनी ताक़त में पहले जैसे ही हैं
उसी की पूँछ पकड़ कर
होता है हमेशा तख़्तापलट
सवाल यह है कि तुम क़िला भेदना चाहते हो या नहीं
क़िले तो अब भी हैं और गोह भी।
तीन
एक गाँव का नाम है गोह
यह बिहार में है
अस्सी के दशक में जाओ उस गाँव में
या नब्बे के दशक में
या आज़ादी के बाद किसी भी तारीख़ में
तुम्हें दिखाई देंगी उजड़ी हुई झोपड़ियाँ
बिखरे हुए खेत
सड़कों में चलते हुए मज़दूर
जूतों में कील ठोंकते मोची
या ऐसे ही कई कारीगरों को देख सकते हो
स्त्रियों के सिर से सरक रहे आँचल को देख कर
तुम कह सकते हो
गोह महज़ एक गाँव का नाम नहीं
यह एक समाज है
जिसका टोटेम गोह है
और गोह सदियों से उनकी स्मृतियों में हैं
यानी वे अपना इतिहास जानते हैं
अपने पूर्वजों को पहचानते हैं
और ये कभी भी अपनी ऊँची आवाज़ में
कह सकते हैं लाल सलाम का नारा।
चार
तुम बहुत रोमानियत महसूस करते होगे
एक गोह को देखकर
गूगल तुम्हें बहत सहजता के साथ
दिखा देता है गोह की तस्वीर
लेकिन क्या तुमने सचमुच गोह देखा है?
शायद तुमने गोह नहीं देखा है
वह रेंगता हुआ निकलता है अपनी बांबी से
बहुत आरामतलब है वह
अपने खाने भर का जुटाता है
उसके यहाँ फ्रिज नहीं होता है
न ही उसे अपने चलने को लेकर फ़िक्र होती है
और इसलिए उसे कभी मेट्रो की ज़रूरत ही नहीं पड़ी
सोचो कितना हँसता होगा वह मेट्रो को देखकर
ज़रूर वह सोचता होगा कि
इंसान रेंगने से ज़्यादा आगे बढ़ ही नहीं सके
और बढ़े भी तो लौटे गुफा की ही तरफ़
तुमने सचमुच गोह नहीं देखा
वह तो तुम पर हँसता है।
पाँच
तुम कहते हो
गोह तो गिरगिट प्रजाति के जीव हैं
जीव विज्ञानियों से पूछो
तो वे तुमको यही जवाब देंगे
लेकिन तुम शायद नहीं जानते
कि गोह रंग नहीं बदलते गिरगिटों की तरह
तुम नाहक गोह को बदनाम करते हो
यह तुम्हारी ग़लती नहीं है
और न ही जीव विज्ञानियों की
यह तुम्हारे अभ्यास का हिस्सा बन गया है
चुनाव के दिनों में वोट डालते-डालते।
- रचनाकार : अनुज लुगुन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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