एक
मेरा घर
दो दरवाज़ों को जोड़ता
एक घेरा है
मेरा घर
दो दरवाज़ों के बीच है
उसमें
किधर से भी झाँको
तुम दरवाज़े से बाहर देख रहे होंगे
तुम्हें पार का दृश्य दीख जाएगा
घर नहीं दीखेगा।
मैं ही मेरा घर हूँ।
मेरे घर में कोई नहीं रहता
मैं भी क्या
मेरे घर में रहता हूँ
मेरे घर में
जिधर से भी झाँको...
दो
तुम्हारा घर
वहाँ है
जहाँ सड़क समाप्त होती है
पर मुझे जब
सड़क पर चलते ही जाना है
तब वह समाप्त कहाँ होती है?
तुम्हारा घर...
तीन
दूसरों के घर
भीतर की ओर खुलते हैं
रहस्यों की ओर
जिन रहस्यों को वे खोलते नहीं।
शहरों में होते हैं
दूसरों के घर
दूसरों के घरों में
दूसरों के घर
दूसरों के घर हैं।
चार
घर
है कहाँ जिनकी हम बात करते हैं
घर की बातें
सब की अपनी हैं
घर की बातें
कोई किसी से नहीं करता
जिनकी बातें होती हैं
वे घर नहीं हैं।
पाँच
घर
मेरा कोई है नहीं
घर मुझे चाहिए :
घर के भीतर प्रकाश हो
इसकी भी मुझे चिंता नहीं है;
प्रकाश के घर के भीतर मेरा घर हो—
इसकी मुझे तलाश है।
ऐसा कोई घर आपने देखा है?
देखा हो
तो मुझे भी उसका पता दें
न देखा हो
तो मैं आपको भी
सहानुभूति तो दे ही सकता हूँ
मानव होकर भी हम-आप
अब ऐसे घरों में नहीं रह सकते
जो प्रकाश के घेरे में हैं
पर हम
बेघरों की परस्पर हमदर्दी के
घेरे में तो रह सकते हैं!
- पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 171)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : अज्ञेय
- प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
- संस्करण : 1997
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