इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी
is kawita mein premika bhi aani thi
निखिल आनंद गिरि
Nikhil Anand Giri
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी
is kawita mein premika bhi aani thi
Nikhil Anand Giri
निखिल आनंद गिरि
और अधिकनिखिल आनंद गिरि
वहाँ हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की
वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आस-पास
एक कँघी, एक ठुड्डी, एक माँ
ग़ौर से ढूँढ़ने पर मिल भी सकते हैं
एक कटोरी हुआ करती थी
जो कभी ख़त्म नहीं होती
पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम
रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी
कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता
जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन
यह अपराधबोध नहीं, सहज होना है
एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,
अड़हुल, कनैल और चमेली भी
दीदी गूँथती थी बिना मुँह धोए
और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर
हमें आँखे मूँदे खड़े होना पड़ा
भगवान होने में कितना बचपना था
एक छत हुआ करती थी
जहाँ से दिखते थे
हरे-उजले रंग में पुते
चारा घोटाले वाले मकान
जहाँ घाम में बालों से
दीदी निकालती थी ढील
जूँ नहीं ढील
धूप नहीं घाम
और सूखता था कोने में पड़ा
अचार का बोइयाम
एक उम्र जिसे हम छोड़ आए
जिल्द वाली किताबों में
मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी
और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र
छोड़कर कँघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर ख़ुशबू,
छोड़कर माँ और बूढ़े होते पिता
आगे की कविता कही नहीं जा सकती
वह शहर की बेचैनी में भुला दी गई
और उसका रंग भी काला है
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी
मगर पिता बूढ़े होने लगें
तो प्रेमिकाओं को जाना होता है...
- रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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