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मैं देखती हूँ

main dekhti hoon

नेहल शाह

नेहल शाह

मैं देखती हूँ

नेहल शाह

और अधिकनेहल शाह

    सड़क पर चलते हुए

    देखती हूँ अपनी परछाई,

    मेरी परछाई भी देखती है मुझे।

    देखने पर उसके विपरीत लगता है

    कि उसने भी फेर लिया है मुँह अपना

    यह जानने के लिए

    कि वह अब भी देख रही है

    मुझे हर बार देखना होता है उसकी ओर।

    रात होते ही

    बह जाती हैं सारी परछाइयाँ

    सड़क की नालियों से होकर

    पहुँचती है गटर में,

    जो खुलता है किसी नदी के मुहाने पर।

    मैं नदी के किनारे बैठ

    देखती हूँ लेटी हुई नदी,

    वह भी देखती है मुझे

    करवट बदलते हुए,

    कुछ कहते नहीं हम

    एक दूसरे से,

    लेकिन यह जानते हैं

    कि एक है हमारा मन,

    मैं सोचती हूँ

    कि शांत हो जाए नदी कुछ देर को,

    शायद वह भी

    सोचती है मेरे लिए

    ऐसा ही कुछ।

    घर लौटती हूँ मैं

    सब ठीक करने की चाहत में

    और पहुँचते ही

    दरवाजे पर पड़ी एक उल्टी चप्पल को

    पैर से सीधा करने के प्रयास में

    खो देती हूँ अपना संतुलन।

    यहाँ घर के आस-पास

    बन रहे हैं नए मकान,

    सीमेंट से सन गई हैं,

    रेलिंगें, पौधे, काँच,

    नई बोरिंगें खुद रही हैं रोज़,

    कुत्तों को हो गया है चर्म रोग

    रुँध गई हैं सड़कें

    ईंट, रेत, गिट्टी से

    और कहीं चला गया है,

    पड़ोस के ख़ाली प्लॉट पर

    बिल में रहता हुआ,

    आकर्षक, चमकीला, साँप।

    (अब रहेंगे यहाँ लोग,

    शायद इसे ही कहते हैं,

    सभ्यताओं का विस्तार)

    मेरे मन में

    हर पल चलते संघर्ष की हिंसा में,

    कई दफ़ा दम तोड़ देती है मेरी अभिव्यक्ति

    इसलिए भी

    कठिन है मेरे लिए कवि-कर्म

    और कविता लिखने के लिए

    हर बार जोड़ना पड़ता है

    मुझे एक नया मन

    जबकि, अब तक नहीं आया मुझे

    पीना पानी बिन गिराए

    अपने कपड़ों पर।

    मैंने नहीं देखा ईश्वर को

    लेकिन माइकल एंजेलो की रचनात्मकता

    मुझे करती है आश्वस्त,

    मैं स्त्री हूँ फिर भी

    लागू होता है मुझ पर,

    श्यानता का सिद्धांत

    मैं बिन उकताए कर सकती हूँ पूरे,

    अपनी दिनचर्या के अधिकतर काम।

    नफ़रत भी रिश्ता है लोगों के बीच,

    डर जाती हूँ सोचकर,

    तरस खाती हूँ

    अपने प्रिय दोस्त पर,

    जो भर चुका है विषैले पात्र-सा

    दिन भर फ़ोन पर लोगों की

    अनचाही बातें सुनकर,

    और अब नहीं सुन सकता

    वह मेरा

    एक और लफ्ज़!

    मेगापिक्सल्स में तब्दील हो चुकी दुनिया

    इस तेज़ी से घूमने लगी है

    मेरे कमरे के चारों ओर,

    कि पलक झपकने के समय में

    घूम जाए सैकड़ों बार मेरे सामने से

    मेरी ध्यान अवधि के पार।

    यह क़तरा-क़तरा खींचती जा रही है

    मेरे भीतर का प्रेम, मेरी दया,

    मेरी कृतज्ञता, उदारता का भाव,

    अब भूल चुकी हूँ मैं,

    झपकना पलकें,

    सूख चुकी हैं मेरी आँखें,

    दूसरों का दुःख

    मेरे लिए है बस एक ख़बर,

    जिसे सुनकर

    हिलती नहीं में,

    रोती भी नहीं

    खड़ी रहती हूँ—ठस

    एक चित्र रुकता है मेरे सामने

    कुछ देर को,

    यह कहता हुआ,

    कि अब रोबोट्स में भी

    उपलब्ध हैं इमोशंस।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नेहल शाह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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