किसी आश्वस्त बर्बर की तरह

kisi ashvast barbar ki tarah

संध्या चौरसिया

संध्या चौरसिया

किसी आश्वस्त बर्बर की तरह

संध्या चौरसिया

और अधिकसंध्या चौरसिया

    अपनी अनायास प्रवृत्तियों में

    मैं देश का मध्य हूँ

    जो पाश की कविता में

    बनिया बनकर आता है

    जिन्हें जीना और प्यार करना कभी नहीं आया

    मेरे पुरखे

    धरती पर नहीं बिखरे किसी बीज की तरह

    नहीं उगे खेतों में साग की तरह

    उनके इतिहास से मुझे भक्ति मिली

    या मिला दिवालियापन

    मैं देश के पूरब में भी उग नहीं पाई

    मेरे धर्म में अशुभ माना गया प्रतिरोध का रंग

    मैंने आजीवन मंदिर से सटे पीपल को देखा

    नहीं देख सकी क़रीबी जंगलों में उगे सरना के पेड़

    हम सदियों से घोटते गए एक कटोरी अतिरिक्त दाल

    नहीं सुन सके पठारो में भूख के बोझ से दबी

    काले प्रेतों के हड्डियों के चिटकने की आवाज़

    उनकी जर्जर धोती पर लगे बर्बाद सभ्यता के पैबंद

    फटी साड़ियों पर मर्दवाद के सूखे कत्थई दाग

    मिट्टी का कटोरा

    खप्पड़ की छत

    चूल्हे की अधजली राख

    एक असहाय लाठी

    और बियाबान आँतों की अनसुनी चीत्कार

    लेकिन फिर भी

    होंठों पर वही कोई आदिम लोकगीत

    कहते हैं :

    उन पठारों में आज भी ज़िंदा अवशेष हैं

    एड़ियों की घिसी बारीक चमड़ियों के

    जो धूप में तपकर पहले कंकड़

    अब पत्थर हो चले हैं

    कोई तो किसी दिन बताएगा

    कि कैसे महामारी के दिनों में

    नदी में बह गए

    स्लेट से बने हज़ारों चमकीले कफ़न

    गुफाओं की अँधेरी दीवारों पर

    किसी मज़दूर बच्चे का प्रेत

    लगातार घिस रहा है सफ़ेद चॉक

    एक मुनाफ़ाख़ोर दुनिया में

    मैं मशग़ूल हूँ

    अपनी अनायास प्रवृत्तियों के साथ

    इन्हीं प्रवृत्तियों में

    किसी आश्वस्त बर्बर की तरह

    मैं देश का मध्य हूँ

    मतदान-केंद्रों पर

    हर पाँच साल में एक बार

    मूर्खों-सा चहकता हुआ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संध्या चौरसिया
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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