एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ़ रहा है
ek buddh kawita mein karuna DhoonDh raha hai
धुर हिमालय में यह एक भीषण जनवरी है आधी रात से आगे का कोई वक़्त है आधा घुसा हुआ बैठा हूँ
चादर और कंबल और रज़ाई में सर पर कनटोप और दस्ताने हाथ में
एक नंगा कंप्यूटर हैंग हो गया है जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ़ रहा है।
तमाम कविताएँ पहुँच रहीं हैं मुझ तक हवा में।
कविता कोरवा की पहाड़ियों से
कविता चंबल की घाटियों से
भीमबेटका की गुफा से कविता स्वात और दज़ला से कविता
कविता कारगिल और पुलवामा से
मरयुल, जङ-थङ, अमदो और खम से
कविता उन सभी देशों से
जहाँ मैं जा नहीं पाया
जबकि मेरे अपने ही देश थे वे।
कविताओं के उस पार एशिया की धूसर पीठ है
कविताओं के इस पार एक हरा-भरा गोंडवाना है
कविताओं के टीथिस में ज़बरदस्त खलबली है
कविताओं की थार पर खेजड़ी की पत्तियाँ हैं
कविताओं की फाट पर ब्यूँस की टहनियाँ हैं
कविताओं के खड्ड में बल्ह के लबाणे हैं
कविताओं की धूल में दुमका की खदाने हैं
कविता का कलरव भरतपुर के घना में
कविता का अवसाद पातालकोट की खोह में
कविता का इश्क़ चिनाब के पत्तनों में
कविता की भूख विदर्भ के गाँवों में
कविता की तराई में जारी है लड़ाई
पानी-पानी चिल्ला रही है वैशाली
विचलित रहती है कुशीनारा रात भर
सूख गया है हज़ारों इच्छिरावतियों का जल
जब कि कविता है सरसराती आम्रपाली
मेरा चेहरा डूब जाना चाहता है उस की संदल-मांसल गोद में
कि हार कर स्खलित हो चुके हैं
मेरी आत्मा की प्रथम पंक्ति पर तैनात सभी लिच्छवि योद्धा जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ़ रहा है।
सहसा ही
एक ढहता हुआ बुद्ध हूँ मैं अधलेटा
हिमालय के आर-पार फैल गया एक भगवा चीवर
आधा कंबल में आधा कंबल के बाहर
सो रही है मेरी देह कंचनजंघा से हिंदुकुश तक
पामीर का तकिया बनाया है
मेरा एक हाथ गंगा की खादर में कुछ टटोल रहा है
दूसरे से नेपाल के घाव सहला रहा हूँ
और मेरा छोटा-सा दिल ज़ोर से धड़कता है
हिमालय के बीचों-बीच।
सिल्क रूट पर मैराथन दौड़ रही हैं कविताएँ
गोबी में पोलो खेल रहा है गेसर खान
कज़्ज़ाकों और हूणों की कविता में लूट लिए गए हैं
ज़िंदादिल ख़ुशमिजाज़ जिप्सी
यारकंद के भोले-भाले घोड़े
क्या लाद लिए जा रहे हैं बिला-उज़्र अपनी पीठ पर
दोआबा और अम्बरसर की मंडियों में
न यह संगतराश बाल्तियों का माल-असबाब
न ही फॉरबिडन सिटी का रेशम
और न ही जङ्पा घुमंतुओं का
मक्खन, ऊन और नमक है
जबकि पिछले एक दशक से
या हो सकता है उससे भी बहुत पहले से
कविता में सुरंगें ही सुरंगें बन रही हैं!
खैबर के उस पार से
बामियान की ताज़ा रेत आ रही है कविता में
मेरी आँखों को चुभ रही है!
करआ-कोरम के नुकीले खंजर
मेरी पसलियों में खुभ रहे हैं
कविता में दहाड़ रहा है तोरा-बोरा
एक मासूम फिदायीन चेहरा
जो दिल्ली के संसद भवन तक पहुँच गया है
कविता का सिर उड़ा दिया गया है
फिर भी ज़िंदा है कविता!
सियाचिन के बंकर में बैठा
एक सिपाही आँखें भिगो रहा है
कविता में एक धर्म है नफ़रत का
कविता में क़ाबुल और काश्मीर के बाद
तुरत जो नाम आता है तिब्बत का
कविता के पठारों से ग़ायब है शङरीला
कविता के कोहरे से झाँक रहा शंभाला
कविता के रहस्य को मिल गया शांति का नोबेल पुरस्कार
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ़ रहा है।
अरे, नहीं मालूम था मुझे
हवा से पैदा होती हैं कविताएँ!
क़तई मालूम नहीं था कि
हवा जो सदियों पहले लंदन के सभागारों
और मेनचेस्टर के कारख़ानों से चलनी शुरू हुई थी
आज पेंटागन और ट्विन-टॉवर्ज़ से होते हुए
बीजिंग के तहख़ानों में जमा हो गई है
कि हवा जो अपने सूरज को अस्त नहीं देखना चाहती
आज मेरे गाँव की छोटी-छोटी खिड़कियो को हड़का रही है
हवा के सामने कविता की क्या बिसात?
हवा चाहे तो कविता में आग भर दे
हवा चाहे तो कविता को राख कर दे
हवा के पास ढेर सारे डॉलर हैं
आज हवा ने कविता को ख़रीद लिया है
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ़ रहा है।
दूर गाज़ा पट्टी से आती है जब
एक भारी-भरकम अरब कविता
कम्प्यूटर के आभासी पृष्ठ पर
तैर जाती हैं सहारा की मरीचिकाएँ
शैं-शैं करता
मनीकरण का खौलता चश्मा बन जाता है उस का सी.पी.यू.
कि भीतर मदरबोर्ड पर लेट रही है
एक ख़ूबसूरत अधनंगी यहूदी कविता
पीली जटाओं वाली
कविता की नींद में भूगर्भ की तपिश
कविता के व्यामोह में मलाणा की क्रीम
कविता के कुंड में देशी माश की पोटलियाँ
कविता की पठाल पे कोदरे की मोटी नमकीन रोटियाँ
कविता की गंध में,
आह!
कैसा यह अपनापा
कविता का तीर्थ यह कितना गुनगुना...
जबकि धुर हिमालय में
यह एक ठंडा और बेरहम सरकारी क्वार्टर है
कि जिसका सीमेंट चटक गया है कविता के तनाव से
जो मेरी भृकुटियों पर शिशिर गाँठ-सा तना हुआ है
जबकि एक माँ की बग़ल में एक बच्चा सो रहा है
और एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ़ रहा है।
- रचनाकार : अजेय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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