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पृथ्वी पर

prithwi par

आदित्य शुक्ल

आदित्य शुक्ल

पृथ्वी पर

आदित्य शुक्ल

और अधिकआदित्य शुक्ल

    उन सभी बातों के शब्द याद आते हैं जो किसी ने कहे ही नहीं

    उन सभी लोगों के स्पर्श होते हैं महसूस जो कहीं हैं ही नहीं

    कभी हुई घटनाएँ उपन्यास के पन्नों की तरह स्मृतियों में खुलने लगी हैं

    जाने कौन-सी हवाएँ उन्हें फड़फड़ा देती हैं

    जाने कौन थे वे लोग जो इस पुल से होकर गुज़रे

    एक सपने में देखा कोई रो रहा था और नींद खुली तो आँखों के कोरों में ठहरे हुए थे कई बूँद आँसू

    कितनी परछाइयाँ इधर भटकती रहती हैं

    उनमें से एक कोई तुम्हारी होती

    कितनी आवाज़ें आती हैं

    लेकिन एक आवाज़ नहीं आती सुकून की कहीं से

    हम जाने कहाँ जा रहे हैं

    हमें जाने कौन बुला रहा है

    चलते-चलते हम अवकाश में गिर जाते हैं

    और फिर देर तक देर तक गिरते रहते हैं गिरते जाते हैं

    गुरुत्वहीन अवकाश

    समयरहित इतिहास

    और दूर तक दूर तक प्रकाश नहीं

    रंग नहीं

    ध्वनि नहीं

    होना नहीं

    पृथ्वी पर बचा आख़िरी हरकारा एक ख़ाली पन्ने को घूरता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आदित्य शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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