अपनी ही गहरी डूब से निकलती है नदी
बहती है अपने ही अंधकार की
अतल गहराइयों को पछाड़-पछाड़...
बहती है—
धरती पर भी
ख़ुद में भी...
कभी-कभी ख़ालिस रेत बनती है
कभी-कभी पत्थरों का रास्ता
कभी-कभी धरती से उछलकर
आसमान पर जा पड़ती है
और बहती है...
कभी-कभी खो जाती है अंतरिक्ष में
कभी किसी ग़रीब की भूख की ऐंठन में
सो जाती है
कभी-कभी एक चटियल पहाड़ हो जाती है
कभी-कभी अंधकार-भरा, भाँय-भाँय जंगल
और कभी इतनी सहज, इतनी सुलभ
इतनी सरल
कि एक चींटी को पीठ कर कराती है सवारी
पहुँचाती है उसे पार।
कभी-कभी होती है खूँख़ार, नदी
अपने कुंलवंशियों के छोटे से छोटे कुनबे के
घरों में घुस आए दानवों की सुंडी में
समाहित होती जाती है
ऐसे में नदी
लड़ती है मुकम्मल लड़ाई
फ़ैसला होने तक आगे नहीं चलती...
फ़ैसला अंततः
होता है नदी के पक्ष में...
नदी फिर बहती है
कभी मंथर-मंथर,
होकर वेगवती कभी-कभी,
अपनी चितवन से काल के गाल पर
खरोंच डालती हुई।
- पुस्तक : काल काल आपात (पृष्ठ 65)
- रचनाकार : कुबेर दत्त
- प्रकाशन : किताब घर
- संस्करण : 1994
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