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दिन के निकलते ही

din ke nikalte hi

सौम्या सुमन

सौम्या सुमन

दिन के निकलते ही

सौम्या सुमन

और अधिकसौम्या सुमन

    दिन के निकलते ही

    गहरे धूसर बादलों से

    भर जाता है आकाश

    उजाले तब्दील हो जाते हैं

    अँधेरे में

    अँधेरे रचते हैं षड्यंत्र

    सन्नाटे का

    और

    कोई थका स्वर

    बींधता है सन्नाटा

    हर रोज़...

    मृत्यु के संशय से

    भरी है यह दुनिया,

    जिसे चोंच में दबाए,

    ब्रह्माँड के चक्कर लगा रहे गिद्ध।

    उसकी बातें याद करती हूँ

    नींद के खंडहरों से होकर

    आती बोझिल रात

    संवाद करती हैं मुझसे

    स्मृतियों की प्रतिध्वनियाँ हैं आवाज़ें,

    जिनका कोई वर्तमान नहीं।

    सो जाओ।

    आह!

    कैसी उजबुजाहट से भरा है

    मेरा उनींदापन

    जैसे...

    जैसे दुनिया

    एक अँधेरा कमरा हो,

    बेशुमार आवाज़ों से भरा

    बंद दरवाज़े वाला कमरा

    जहाँ दीवारों से,चीज़ों से

    टकराने की आवाज़ें

    अनसुनी करती रही

    एक छाया

    झकझोरती है मुझे

    हर रोज़...

    जब दिन के निकलते ही

    धूसर बादलों से

    भर जाता है आकाश

    और उजाले तब्दील हो जाते हैं

    गहरे अँधेरे में

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्या सुमन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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