(1)
सिंहासन तज धीर पदहिं कन्यालय आवत।
उग्रभाव तजि भानु मृदुल किरनन छिटकावत॥
जाके तेज प्रचंड विश्व को सिर भिन्नायो।
तन भए भाठीरूप प्राण तिनमहं खौरायो॥
सो तेज प्रताप दिनेस को,
मृदुल भयो आई सरत।
निज विमल मधुर सौंदर्य सों,
कियो आय भूषित जगत॥
(2)
कटे जलद जंजाल घनन को घट्यो घोर तम।
मिट्यो वायु को बेग, हट्यो सब माटी करदम॥
सुखद सुहावनि राति नील-निर्मल नभ मंडल।
शोभा अमित अपार करत तारागण झलमल॥
जल सूख्यो धरनि विधौत भई,
घाट बाट निर्मल भए।
नानाविध तरु पल्लव लता,
पत्रन पुष्पन सों छए॥
(3)
रजत तटन संग रजत-तटिनि अति शोभा पावत।
ह्वै प्रफुल्ल ससि रजत-किरण तापर बिथुरावत॥
विमल सोत प्रतिबिंब नील नभ को हिय धारन।
करि कौसल ससि तारागन भुंइ-माहं उतारत॥
ससि ज्योति पाय रज रजत भई,
कण चमके चमचम करैं।
जिमि टूटि-टूटि नभ सों नखत,
आय भूम ऊपर परैं॥
(4)
छिटक रही चाँदनी बढ्यो सौंदर्य अपारा।
भए ज्योतिमय वृक्ष, पत्र चमकैं जिमि तारा॥
केकी कंठ कठोर भयो चुप झिल्लिन साधी।
मसक दंस भए साधु, भूमि-महं लई समाधी॥
कोकिल अवरोध्यो कंठ अरु,
चातक पुनि प्यासो भयो।
खंजन कुंजन अरु हंसगन,
समय पाय दरसन दयो॥
(5)
फूले हारसिंगार महक चहुँ ओर उड़ावहिं।
नानाविधि तरुराजि विकसि अति शोभा पावहिं॥
निर्मल निश्चल वारियुक्त सब सागर सोहैं।
रंग रंग के कमल विकसि तिनमहं मन मोहैं॥
रमनीय सुखद सुंदर सरत,
इह रूप आय दरसन दियो।
मन देवन पितृन ऋषिन को,
सब प्रकार प्रमुदित कियो॥
(6)
धन्य सुअवसर कियो मात जगदंबा आवन।
पाप ताप सब नसे भयो भारत अति पावन॥
आय मात आनंदमयी आनंद बढ़ायो।
विश्व-विजयिनी विजय कीन्ह दु:ख दूर भगायो॥
भइ काल-त्रियामा सेस अरु,
सुख को सूरज परगट्यो।
चहुँ ओर देस उज्ज्वल भयो,
दरकि हियो तम को फट्यो॥
(7)
जय-जय ध्वनि रहि पूरि बजत आनंद बधाई।
नभ ठहराय विमान देवगण देखैं आई॥
सुख को भयो प्रभात उठौ सब भारतवासी।
निरखहु नयन उघारि मात आई सुखरासी॥
सब पूजहु मात सनातनी,
आदि सक्ति कहँ धाय कै।
रलमिल आनंद उत्सव करहु,
नाचौ दु:ख बिसराय कै॥
(8)
झालर घंटा ढोल ढाक दुंदभी बजाओ।
कोटि-कोटि घंटन-ध्वनि सों सब दिसा गुँजाओ॥
आनहु-आनहु बिल्व-पत्र भागीरथि को जल।
रक्त पीत अरु स्वेत नील आनहु कमलन दल॥
अंजली पूरि के मात के,
चरनन महं अरपन करो।
कहि अहो मात दुखहारिनी,
दीन जनन को दु:ख हरो।
(9)
पूजहु-पूजहु महाशक्ति बलशक्ति बढ़ावनि।
भक्तन रक्षा करनि दैत्यदल मारि भगावनि॥
पूजहु-पूजहु मात सदा भव-चिंता हारिनि।
मनो कामना सिद्ध करनि कलिकष्ट निवारनि॥
त्रेता जाके पद पूजि कै,
रामचंद्र कीरति लई।
सीता पाई रावण हत्यो,
लंक विभीषन कहँ दई॥
(10)
पूजहु दुर्गति-दलनि नसैगी दुर्गति सारी।
सुभंकरी दुखहरी दीनजन-करि महतारी॥
बेगि बुझैगो दु:ख-दीनता को दावानल।
बाढ़ै बहु सौभाग्य सौख्य ऐश्वर्य बुद्धि बल॥
सब ताप दीनता पाप दु:ख,
संकट दूर नसायगो।
अरु भारतवासिन को पुन:,
भाग्य उदय ह्वै जायगो॥
(11)
जब मा! कृपा तुम्हारि रही भारत के ऊपर।
तब याके सम तुल्य धरनि पर रह्यो न दूसर॥
याको तेज प्रताप बुद्धि गौरव जस सुनिकर।
काँपत ही नित रह्यो हियो शत्रुन को थर-थर॥
अब वही भाव जीवित करन,
आई हो करुणामयी।
पुनि दया दृष्टि सों करहुगी,
भारत कहँ त्रिभुवनजयी।
(12)
जयति सिंहवाहिनी जयति जय भारत माता।
जय असुरन दल दलनि जयति जय त्रिभुवन त्रासा॥
संग सरस्वति अरु कमला, सोभा बाढ़ी अति।
चारहु ओर गगन करि सेना, सुर सेनापति॥
अब जननी याही रूप सों,
सदा वास भारत करो।
धन धान्य अनंद बढ़ाय कै,
दरिद सोक संसय हरो॥