(1)
जयति जयति जय रामचंद्र रघुवंश-विभूषन।
भक्तन हित अवतार धरन नाशन भव-दूषन॥
जयति भानुकुल भानु कोटि ब्रह्मांड प्रकाशन।
जयति जयति, अज्ञान-मोह-निशि-तिमिर विनाशन॥
जय निज लीला-वश वपु धरन,
करन जगत कल्यानमय।
जय कर-धनुशर तूनीर-कटि,
सिया सहित श्रीराम जय॥
(2)
शिव विरंचि अहिराज पार कोऊ नहिं पावैं।
सनकादिक शुक नारद शारद ध्यान लगावैं॥
मुनिगन जोग समाधि करहिं बहुविधि जा कारन।
तदपि रूप वह सकहिं न करि उर अंतर धारन॥
सो अखिल ब्रह्म शिशुरूप धरि,
खेलत दशरथ के सदन।
कौशल्या निरखत मुदित मन,
जयति राम आनंद घन॥
(3)
सहित अनुज बन बीच करी मुनिमख रखवारी।
मारग जात निहारि नार पाथर की तारी॥
जनकपुरी महं जाय यज्ञ को मान बढ़ायो।
नृपति प्रतिज्ञा राखि सीय को मन हुलसायो॥
शिव चाप तोरि खल नृपन को,
मान दर्प चूरन कर्यो।
अरु भृगकुल कमल पतंग को,
चाप खैंचि संशय हर्यो॥
(4)
सुन विमात के वचन तुरंत वन को उठ धाए।
रुदित छोड़ि पितु-मात-प्रजा, मन सोच न लाए॥
अवध तजन को खेद नाहिं धन धाम तजन कर।
किंतु भरत को ध्यान एक उर माहिं निरंतर॥
जय जटा जूट कर धनुष शर,
अंग भस्म बलकल-वसन।
सिय अनुज सहित वन गमन करि,
पिता वचन पालन करन॥
(5)
नेही जानि निषाद नीच छाती सों लायो।
लछमन सम प्रिय भाषि प्रेम सों हियो जुड़ायो॥
स्वाद बखानि-बखानि भीलिनी के फल खाए।
निज कर पंकज ताहि दाह कर आगे धाए॥
परस्यो कर सीस जटायु निज,
धाम ताहि छन मैं दयो।
जय पवन-सुवन की प्रीति लखि,
अंग-अंग पुलकित भयो॥
(6)
सुग्रीवहिं लखि दु:खी आपनी दशा बिसारी।
फरकहि भुजा विशाल देह थहरावत सारी॥
एक वान सों मारि बालि सुरधाम पठायो।
तारा कहै परबोधि भक्त को कष्ट मिटायो॥
जय बालिसुतहि पायक करन,
निरखि जाहि पुलकित हियो।
करि तिलक माथ कपिराय के,
भीत-रंक राजा कियो॥
(7)
छाड़ि गेह अरि-भ्रात आय चरनन सिरनायो।
अग्रज के डर डर्यो मनहिं अतिही सकुचायो।
चितवतही एक बार अहो! पलटी ताकी गति।
लात खाय कै कढ्यो भयो छन में लंकापति॥
दससीस मारि महिभार हरि,
असुरन दीन्हीं विमल गति।
जय जयति राम रघुवंशमनि,
जाहि दीन पर नेह अति॥
(8)
देवराज भए मुदित अमरपुर बजत बधाई।
बजहिं दुंदुभी, भीर बिमानन की नभ छाई॥
सुरबाला सब मुदित अंग फूली न समावैं।
फूलन वर्षा होय देवगण अस्तुति गावैं॥
त्रसित जिए बहुकाल प्रभु!
असुर मार दीन्हीं अभय।
अब जाय अवध परतोषिए,
जयति राम रघुवीर जय॥
(9)
पूरन शशि जिमि निरखि उदधि बाढ़त तरंग सों।
देखि घटा घनघोर मोर नाचत उमंग सों॥
तैसो आज अवध-सुख उमड़त नाहिं समावत।
निरखि राम रिपु जीति भ्रात सीता संग आवत॥
प्रमुदित गुरु जननी नारि नर,
सुख न जात केहु कौ कह्यौ।
अरु भ्रात शिरोमनि भरत कै,
मोद जलधि हिय मैं बह्यो॥
(10)
हम प्रभु दीन मलीन हीन सब भाँति दुखारी।
धर्म रहित धन रहित ध्यानच्युत बहु अविचारी॥
यद्यपि न काहू भाँति सुखी भोगत करमन फल।
सोचि-सोचि निज दशा भर्यो आवत आँखिन जल॥
पै तदपि होत सूखो हियो,
हर्यो, सुमरि दिन आज को।
राजतिलक हिय में बसौ,
श्री रामचंद्र महाराज को॥
- पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 577)
- संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
- रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
- प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
- संस्करण : 1950
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