(1)
जयति-जयति लक्ष्मी जयति मा जग-उजियारी।
सर्वोपरि सर्वोपम सर्वहू तें अति प्यारी॥
व्यापि रह्यो चहुँ ओर तेज जननी यक तेरो।
तव आनन की जोति होत यह विश्व उजेरो॥
जहाँ चंद्रमुखी मुखचंद्र की,
किरन न उजियारो करैं।
तहँ तम न कटै युग कोटि लौं,
कोटि भानु पचि-पचि मरैं।
(2)
“बिन तेरे सब जगत, जननि! मृतवत् अरु निसफल”
देवन बात कही यह सांचि छाड़ि छोभ छल।
तोहि छाड़ि मा! देवन केतो ही दु:ख पायो।
सुरपति चंद्र कुबेर हूतैं नहिं मिट्यो मिटायो॥
जब सूखे तालू ओंठ मुख,
चरन गहे तव आय कै।
तब दूर भयो दु:ख सुरन को,
रहे नैन झर लाय कै॥
(3)
जा घर नहिं तव वास मात सोही घर सूनो।
द्वार-द्वार बिडरात फिरै तव कृपा बिहूनो।
औरन की को कहे स्वजन जब धक्का मारैं।
अपने घर के ही घर सों कर पकरि निकारैं॥
नहिं भ्रात मात अरु बंधु कोउ,
निरधन को आदर करै।
निज नारि हू मा तव कृपा बिन,
आनन मोरि निरादरै।
(4)
कोटि बुद्धि किन होहिं बिना तव काम न आवैं।
कोटिन चतुराई तव बिन धूरहि मिलि जावैं।
तहँ कहँ बुद्धि थिराय मात जहँ वास न तेरो?
जहाँ न दीपक बरै रहे केहि भाँति उजेरो?
बहु बुद्धिमान तव कृपा बिन,
बुद्धि खोय मारे फिरैं।
केते मूरख तव लाडिले,
दूरि-दूरि तिनका करैं॥
(5)
कहा भयो जो मरि पचि कै बहु विद्या पाई।
पोथिन पत्रन की घर महं अति भीर लगाई।
रही मात तव दया बिना सब विद्या छूछी।
बहुत पसारे हात बात काहू नहिं पूछी।
नहिं जननी विद्या बुद्धि को,
तव बिन नैक उठाव है।
धिक जीवन तव करुना बिना,
तोसों कहा दुराव है?
(6)
जप-तप-तीरथ-होम-यज्ञ बिन कछु नाहीं।
स्वारथ परमारथ सबरो तेरे ही माहीं।
चलै न घर को काज न पितृन अरु देवन को।
जनम लेत तव कृपा बिना नर दु:ख सेवन को।
जय जयति अखिल ब्रह्मांड के,
जीवन की आधार जो।
जय जयति लच्छमी जगत की,
एकमात्र सुखसार जो॥
(7)
भलो कियो री मात आय कीन्हों पुनि फेरो।
तुम्हरे आए हमरे घर को मिट्या अँधेरो।
तुम्हरे कारन आज मात दीपावलि बारी।
घर लीप्यो टूटी-फूटी सब वस्तु सँवारी।
तुम्हरे आए तव सुतन को,
आज अनंद अपार है।
सब फूले-फूले फिरत हैं,
तनकी नाहिं सम्हार है॥
(8)
मात आपने कंगालन की दशा निहारो।
जिनके आँसुन भीज रह्यो तव आँचल सारो।
कोटिन पै रही उड़त पताका मा जिनके घर।
सो कौड़ी-कौड़ी हाथ पसारत दर-दर।
हा! तो-सी जननी पाय कै,
कंगाल नाम हमरो पर्यो।
धिक-धिक जीवन मा लच्छमी,
अब हम चाहत हैं मर्यो॥
(9)
तन सूख्यो मन मर्यो प्रान चिंता लगि छीजै।
छन-छन बढ़त कलेस कहो कैसे कर जीजै?
जरत अन्न बिन पेट देह बिन वस्त्र उघारी।
भूख प्यास सों व्याकुल ह्वै रोवत नर नारी।
जननी कब करुन कटाच्छ सों,
इनकी ओर निहारि हो।
चहुँ ओर दु:ख दावा जरे,
कर गहि आय निकारिहो।
(10)
गज रथ तुरग बिहीन भए ताको डर नाहीं।
चँवर छत्र को चाव नाहिं हमरे उर माहीं॥
सिंहासन अरु राजपाट को नाहिं उरहनो।
ना हम चाहत अस्त्र वस्त्र सुंदर पट गहनो॥
पै हाथ जोरि हम आज यह,
रोय-रोय विनती करैं।
या भूखे पापी पेट कहँ,
मात कहो कैसे भरैं?
- पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 613)
- संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
- रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
- प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
- संस्करण : 1950
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