सीलमपुर की लड़कियाँ
silampur ki laDkiyan
रोचक तथ्य
इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
सीलमपुर की लड़कियाँ ‘विटी’ हो गईं
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
जन्म से लेकर पंद्रह साल की उम्र तक
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़े होने के लिए किया,
पंद्रह साल बुढ़ापा
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
विनम्र होकर झुक जाती थी
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
यह डॉक्टर मनमोहन सिंह और एम टी.वी. के उदय से पहले की बात है।
तब इन लड़कियों के लिए न देश-विदेश था, न काल-काल
ये दोनों
दो कूल्हे थे
दो गाल
और दो छातियाँ
बदन और वक़्त की हर हरकत यहाँ आकर
मांस के एक लोथड़े में बदल जाती थी
और बंदर के बच्चे की तरह
एक तरफ़ लटक जाती थी
यह तब की बात है जब हौज़ख़ास से दिलशाद गार्डन जाने वाली
बस कंडक्टर
सीलमपुर में आकर रेज़गारी गिनने लगता था
फिर वक़्त ने करवट बदली
सुष्मिता सेन मिस यूनीवर्स बनीं
और ऐश्वर्या राय मिस वर्ल्ड
और अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थीं
किसी पत्रिका में अपने अर्धनग्न चित्र छपने को दे आईं
और सीलमपुर, शाहदरे की बेटियों के
गालों, कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथड़े
सप्राण हो उठे
वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
पंद्रह साला इन लड़कियों की हज़ार साला पोपली आत्माएँ
अनजाने कंपनों, अनजानी आवाज़ों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
और मेरी ये बेडौल पीठवाली बहनें
बुज़ुर्ग वासना की विनम्रता से
घर की दीवारों से
और गलियों-चौबारों से
एक साथ तटस्थ हो गईं
जहाँ उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
वहाँ वे स्तब्ध होने लगीं,
जहाँ उनसे मेहनत की उम्मीद थी
वहाँ वे यातना कमाने लगीं
जहाँ उनसे बोलने की उम्मीद थी
वहाँ वे सिर्फ़ अकुलाने लगीं
उनके मन के भीतर दरअसल एक क़ुतुबमीनार निर्माणाधीन थी
उनके और उनके माहौल के बीच
एक समतल मैदान निकल रहा था
जहाँ चौबीस घंटे खट्खट् हुआ करती थी।
यह उन दिनों की बात है जब अनिवासी भारतीयों ने
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपर
हिंदुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया था
और बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों ने
अँग्रेज़ी पत्रकारों को चुपके से बताया था कि
एक दिन वे किसी न किसी अनिवासी के साथ उड़ जाएँगी
क्योंकि करियर के लिए यह ज़रूरी था
करियर जो आज़ादी था
उन्हीं दिनों यह हुआ
कि सीलमपुर के जो लड़के
प्रिया सिनेमा पर खड़े युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे
वहाँ की सौंदर्यातीत उदासीनता से बिना लड़े ही पस्त हो गए
चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
समय उन्हें भीतर से चाट गया
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिए
उनके चेहरे खूँख़ार तेज़ से तप रहे थे
वे साकार चाक़ू थे,
वे साकार शिश्न थे
सीलमपुर उन्हें जज़्ब नहीं कर पाएगा
वे सोचते आ रहे थे
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
जो इधर
लड़कियों की टाँगों में तराश दी गई थीं
और उस मैदान के बारे में
जो उन लड़कियों और उनके समय के बीच
जाने कहाँ से निकल आया था
इसलिए जब उनका पाँव उस ज़मीन पर पड़ा
जिसे उनका स्पर्श पाते ही धसक जाना चाहिए था
वे ठगे से रह गए
और लड़कियाँ हँस रही थीं
वे जाने कहाँ की बस का इंतज़ार कर रही थीं
और पता नहीं लगने दे रही थीं कि वे इंतज़ार कर रही हैं।
- पुस्तक : शोकनाच (पृष्ठ 44)
- रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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