“हे प्रेयसि तुम दिया बुझा दो
चमक-दमक तेरी आँखों की देखूँगा मैं तम में”
प्रेयसि से अनुरोध किया प्रेमी नायुडु ने।
अँधेरे में आग चमक-दमक दिखलाती है,
तम के रंगमंच पर नाचते समय ही
लपटें और चिनगारियाँ
उज्ज्वल दिखती हैं,
अँधेरे में ही तारे ख़ूब चमकते हैं।
काले बादलों की पालकी में
सौदामिनी चमक-दमक दिखलाती है,
कृष्ण के परदे पर ही अर्जुन शोभा देता है
तिमिर में आँखों का चमकना
कवि-समय है या यथार्थ?
चर्मचक्षु जिसे देख नहीं सकता
उसे मन-नयन देख सकेगा
चर्मचक्षु के लिए क्रांति चाहिए
मन नेत्र के लिए क्रांति निषेध है,
प्रकाश में सभी बाधा उपस्थित करते हैं
दीवारें, छत, खिड़कियाँ
दृष्टि को रोक देती हैं,
और तिमिर में ग़ायब हो जाती हैं,
मन-नेत्र सुदूर देशों को
निर्विरोध देख सकता है,
अँधेरे की दूरबीन से
बहुत-सी चीज़ें देख सकते हैं,
प्रकाश में भौतिक नेत्र के लिए
कभी-कभी प्रकाश से भी
अँधेरा ही बेहतर है।
तिमिर-दृष्टि को कोई अवरोध नहीं है
तिमिर-कपाट ही,
पलकें हैं।
ध्यान के लिए आँखें बंद करनी हैं,
गहन चिंतन के लिए भी आँखें बंद करनी हैं
गीत को ध्यान से सुनने के लिए
उजाले को दूर करने वाली, मुँदी हुई पलकें चाहिए।
सब से बढ़कर
निद्रा के रंगमंच पर सपनों के नर्तन के लिए
चाहिए मुँदी हुई पलकें ही।
आँखों का मुँदना ही उनके खुलने में योग देता है,
हृदय-शांति की भूमिका बनाता है।
अँधेरे में कितनी आज़ादी है
चलने के लिए, तैरने के लिए
उड़ने की स्वतंत्रता मन को मिलती है
अँधेरे में ही मन विकसित होता है
मृत्यु ही अँधेरा है, काल भी अँधेरा है
अतीत और भावी की अँधेरी सरहदों के बीच
'आज’
चमकने वाला काल-बिंदु है।
अनन्त का कवच अंधकार है,
जीव का जन्म लेना, बढ़ना भी
गर्भकोश के अंधकार में ही।
अँधेरा सभी को सपाट बना देता है
अँधेरे में महान शक्ति है,
शक्ति का स्वरूप ही अँधरा है
काली का स्वरूप ही अँधेरा है,
बाह्येन्द्रियों का आवरण ही अँधेरा है,
ऐसे अँधेरे में
प्रेयसी की कजरारी आँखों की चमक-दमक
नायुडु देखना चाहता है,
इसीलिए जयद्रथ की तरह अड़े हुए दिये को
बुझाने के लिए कहता है।
- पुस्तक : लोकालोक (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : बी. गोपाल रेड्डी
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1989
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