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औरत—औरत में अंतर है

aurat—aurat mein antar hai

रजनी तिलक

रजनी तिलक

औरत—औरत में अंतर है

रजनी तिलक

और अधिकरजनी तिलक

    औरत औरत होती है,

    उसका कोई धर्म

    कोई ज़ात होती है,

    वह सुबह से शाम खटती है,

    घर में मर्द से पिटती है

    सड़क पर शोहदों से छिड़ती है।

    औरत एक बिरादरी है।

    वह स्वयं सर्वहारी है,

    स्त्री वर्ग-लिंग के कारण

    दबाई और सताई जाती है।

    एक-सी प्रसव पीड़ा झेलती है।

    उनके हृदय में एक-सा वात्सल्य

    ममता-स्रोत फूटते हैं,

    औरत तो औरत है

    सबके सुख-दु:ख एक हैं।

    औरत औरत होने में

    जुदा-जुदा फ़र्क़ नहीं क्या?

    एक भंगी तो दूसरी बामणी

    एक डोम तो दूसरी ठकुरानी

    दोनों सुबह से शाम खटती हैं

    बेशक, एक दिन भर खेत में

    दूसरी घर की चहारदीवारी में

    शाम को एक सोती है बिस्तर पे

    तो दूसरी काँटों पर।

    छेड़ी जाती हैं दोनों ही बेशक

    एक कार में, सिनेमा हॉल और सड़कों पर

    दूसरी खेतों, मोहल्लों में, खदानों में और

    सब सर्वहारा हैं संस्कृति में?

    एक सताई जाती है स्त्री होने के कारण,

    दूसरी सताई जाती है स्त्री और दलित होने पर

    एक तड़पती है सम्मान के लिए

    दूसरी तिरस्कृत है भूख और अपमान से।

    प्रसव-पीड़ा झेलते फिर भी एक-सी

    जन्मती है एक नाले के किनारे

    दूसरी अस्पताल में,

    एक पायलट है

    तो दूसरी शिक्षा से वंचित है,

    एक सत्ताहीन है,

    दूसरी निर्वस्त्र घुमाई जाती है।

    औरत नहीं मात्र एक जज़्बात

    हर समाज का हिस्सा,

    बँटी वह भी जातियों में

    धर्म की अनुयायी है

    औरत औरत में भी अंतर है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 144)
    • संपादक : कँवल भारती
    • रचनाकार : रजनी तिलक
    • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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