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दग़ा की

dagha ki

चेहरा पीला पड़ा।

रीढ़ झुकी। हाथ जोड़े।

आँख का अँधेरा बढ़ा।

सैकड़ों सदियाँ गुज़रीं।

बड़े-बड़े ऋषि आए, मुनि आए, कवि आए,

तरह-तरह की वाणी जनता को दे गए।

किसी ने कहा कि एक तीन हैं,

किसी ने कहा कि तीन-तीन हैं।

किसी ने नसें टोईं, किसी ने कमल देखे।

किसी ने विहार किया, किसी ने अँगूठे चूमे।

लोगों ने कहा कि धन्य हो गए।

मगर खँजड़ी गई।

मृदंग तबला हुआ,

वीणा सुर-बहार हुई।

आज पियानो के गीत सुनते हैं।

पौ फटी।

किरनों का जाल फैला।

दिशाओं के होंठ रँगे

दिन में, वेश्याएँ जैसे रात में।

दग़ा की इस सभ्यता ने दग़ा की।

स्रोत :
  • पुस्तक : निराला संचयिता (पृष्ठ 148)
  • संपादक : रमेशचंद्र शाह
  • रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2010

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