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दादा को याद करते हुए

dada ko yaad karte hue

अखिलेश जायसवाल

अखिलेश जायसवाल

दादा को याद करते हुए

अखिलेश जायसवाल

और अधिकअखिलेश जायसवाल

    जब तुम थे

    समय की धीमी आँच में

    सीझती थीं चीज़ें

    और पकती थीं रेशा-रेशा।

    बडे़ गहरे उगती थी

    एक सुगंध और मिठास

    जो संस्कारों की बाँह पकड़े

    चलकर आती थी

    अंदर से बाहर की ओर

    और टिक जाती थी

    आँखों और होठों के कोनों में।

    अब तो सीधे पक जाते हैं आम

    पहले गुरौध हुआ करते थे

    उसके बाद ही पकते थे।

    मैं भूल चुका हूँ

    उन बरसाती नक्षत्रों के नाम

    जिनके साथ धूल में खेलते हुए

    जवान होती थी बरसात,

    झूले झूलती थी

    और कजरी गाती थी।

    वह भी एक समय था

    जब घाघ भड्डरी की कहावतों की अगवानी में

    वह आसमान से उतरती थी

    और इसी तरह विदा होते समय

    क्षितिज तक उनका हाथ पकड़े जाती थी।

    अब तो बिना बताए आती है

    और दबे पाँव वापस चली जाती है।

    समय ने पत्थर से लेकर

    प्लास्टिक तक की पर्तें

    अपने ऊपर चढ़ते देखी हैं

    लेकिन मैं भूल नहीं पाता हूँ

    वह मिट्टी से लिपा हुआ समय—

    मिट्टी का मोह,

    मिट्टी की बातें,

    मिट्टी के गीत,

    मिट्टी के दीप

    और मिट्टी के कलश।

    हर चीज़ में सनी हुई थी

    मिट्टी की महक

    चाहे वह चाय हो या चरणामृत।

    तब अंगुलियाँ कहाँ उठती थीं,

    उन्हे चुल्लू बने रहने का

    इतना अभ्यास था कि

    शायद ही कभी उठ पाती थीं।

    आज तरक़्क़ी की अंधी दौड़ में

    'तिलिस्म' की ताबीज़

    और 'शख़्सियत' के टोटकों के साथ

    हर जगह खड़ी है

    एक हाँफती हुई भीड़

    जिसने झिटक दी है

    अपनी परंपराओं की अंगुलियाँ

    और नोचकर फेंक दिया है

    मूल्यों के नुस्ख़े।

    सन गए हैं उसके जूते

    उसके अपनों के ही ख़ून से,

    उसने ख़ूब जलाया और तापा है

    अपनी ही नस्ल और अपने ही घरों को।

    काले पड़ चुके हैं

    उस धुएँ और राख़ से

    कैलेंडरों कें अधिकांश दिन

    और किसी शहीद की पुण्यतिथि पर

    उस राख को खुल्हेर कर

    खोजी जाती हैं भाईचारे की अस्थियाँ।

    तुम कहा करते थे कि

    आदमी और जानवर में

    ज़्यादा अंतर नहीं है

    सिर्फ़ भाई और चारे का अंतर है।

    हालाँकि आदमी और बंदर के भाई होने की कथा

    वैज्ञानिकों ने बहुत पहले ही बाँच ली थी

    लेकिन जैसे-जैसे उसका पुनर्पाठ होता गया

    आदमी ने छीनकर अपना लिए बंदरों के सारे मुहावरे

    यहाँ तक की उस्तरे भी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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