कहीं दूर से किसी गाँव के अपने एक आत्मीय से
माँग लाए थे दादा नींबू पौध
और लगाया था उसे अपनी बाड़ी में
दुख की घड़ी में एक टुकड़ा साथ क्या माँगा
इस नींबू माँगकर बीमार दादी के लिए
पड़ोसी नकछेदी साव को लगा था कि
दादा ने जान ही माँग ली उसकी
जबकि नकछेदी के साँवरे बदन पर
लकदक साफ शफ़्फ़ाफ़ धोती कुर्ता
जो शोभायमान देख रहे हैं आप
उसकी बरबस आँख खींचती सफ़ाई
दादा के कारीगर हाथों की
करामात ही तो है
गाँव-जवार सभा-समाज दोस-कुटुम भोज-भात
हर कहीं नकछेदी के धोती-कुर्ते पर
सम्मोहित आँखें जो टँगी होती हैं
पूछने पर दादा के हुनरमंद हाथों का बखान
झख मारकर उसे करना पड़ता ही है
दादा ने यह नींबू पौध नहीं लगाया
गोया लगाया अपने ठेस लगे दिल को
सहलाता एक अहं अवलंब
अपने खट्टे अनुभवों को देता एक प्रतीक
अब दादा की दुनियावी ग़ैरमौज़ूदगी में
उनका यह अवलंब तब्दील हो गया है
एक अस्मिता स्मृति वृक्ष में
और नया अवलंब नए घर की नींव डालने के क्रम में
है अभिशप्त यह समूल अस्तित्वविहीन हो जाने को।
- रचनाकार : मुसाफ़िर बैठा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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