सफ़दर हाशमी से निर्मल वर्मा में तब्दील होते हुए
मैं थक गया हूँ यह नाटक करते-करते
रवींद्र भवन से लेकर भारत भवन तक
एक भीड़ के सम्मुख आत्मसत्य प्रस्तुत करते-करते
मैं अब सचमुच बहुत ऊब गया हूँ
इस निर्मम, निष्ठुर और अमानवीय संसार में
मैं मुक्तिबोध या गोरख पांडेय नहीं हूँ
मैं तो श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ का वह बच्चा भी नहीं हूँ
जो एक अय्यास सामंत की जागीर पर
एक पत्थर फेंककर भागता है
मैं ‘हल्ला बोल’ का ‘ह’ तक नहीं हूँ
मैं वह किरदार तक नहीं हूँ
जो नुक्कड़ साफ़ करता है ताकि नाटक हो
मैं उस कोरस का सबसे मद्धिम स्वर तक नहीं हूँ
जो ‘तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर...’ गाता है
मैं कुछ नहीं बस एक संतुलन भर हूँ
विक्षिप्तताओं और आत्महत्याओं के बीच
मैं जो साँस ले रहा हूँ वह एक औसत यथार्थ की आदी है
इस साँस का क्या करूँ मैं
यह जहाँ होती है वहाँ वारदातें टल जाती हैं
मैं अपने गंतव्यों तक संगीत सुनते हुए जाता हूँ
टकराहटें दरकिनार करते हुए
मुझे कोई मतलब नहीं :
धरना-प्रदर्शन-विरोध-अनशन-बंद... वग़ैरह से
मैंने बहुत नज़दीक से नहीं देखा कभी बर्बरता को
मैंने इसे जाना है तरंगों के माध्यम से
शहर भर में फैली बीमारियाँ फटक नहीं पातीं मेरे आस-पास
मेरे नौकर मेरे साथ वफ़ादार हैं
और अब तक बचा हुआ है मेरा गला धारदार औज़ारों से
मैं कभी शामिल नहीं रहा सरकारी मुआवज़ा लेने वालों में
शराब पीकर भी मैं कभी गंदगी में नहीं गिरा
और शायद मेरी लाश का पोस्टमार्टम नहीं होगा
और न ही वह महरूम रहेगी कुछ अंतिम औपचारिकताओं से
ख़राब ख़बरें बिगाड़ नहीं पातीं मेरे लज़ीज़ खाने का ज़ायक़ा
मैंने खिड़कियों से सटकर नरसंहार देखे हैं और पूर्ववत बना रहा हूँ
इस तरह जीवन कायरताओं से एक लंबा प्रलाप था
और मैं बच गया यथार्थ समय के ‘अंतिम अरण्य’ में
मुझे लगता है मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा
कि मैं स्वयं को एक प्रत्यक्षदर्शी की तरह अभिव्यक्त कर सकूँ
लेकिन जो देखता हूँ मैं आजकल नींद में
कि सब कुछ एक भीड़ को दे देता हूँ
अंत में केवल अवसाद बचता है मेरे शरीर पर
इस अवसाद के साथ मैं खुद को ख़त्म करने जा ही रहा होता हूँ
कि बस तब ही चाय आ जाती है
और साथ में आज का अख़बार
- रचनाकार : अविनाश मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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