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पन्हाना

panhana

नीलेश रघुवंशी

और अधिकनीलेश रघुवंशी

    भोर की बेला में सूरज को पछाड़ती है अपनी चमक से

    और गोधूलि बेला का तो नाम पड़ा उसी से

    गाय को सब कुछ सुहाता है नहीं सुहाता तो बस

    दूध दुहते समय उसका पन्हाना करवाना

    दूध दुहने के ऐन पहले छोड़ देते हैं बछड़े को गाय के पास

    बछड़े को चूमती-चटकारती गलबहियाँ डालती पन्हाती है गाय

    उतरता है ख़ूब उतरता है दूध गाय के थनों में

    पन्हाते ही गाय के खींच लेते है बछड़े को और जी-भर

    दूध दुहते हैं उसका

    बहुत कुछ कहना चाहती है गाय ऐसे समय

    समझ आता है ख़ूब उसे कि पन्हाते ही छीन लिया जाएगा बछड़े को

    बछड़े के मुँह से छूटते थनों को देख

    सोचती है हर दिन कि अबकी नहीं पन्हाएगी

    ठानती है हर बार कि पन्हाने के बाद खींच लेगी दूध ऊपर

    लेकिन हर बार गच्चा खाती मारे ग़ुस्से के फेर लेती है मुँह

    हर दिन पन्हाती हैं गाय को आँखें दूध लगने के बाद

    बरसों बरस हो गए

    भोर और गोधूलि बेला का यह सिलसिला...

    ख़ूब लतियाती है गाय कई बार तो घंटों छकाया उसने

    जितना दूध दिया दी हैं उतनी ही लातें अपने गोपालक को

    लेकिन आज क्या हुआ एकदम चुप खड़ी है गाय

    ज्यों की त्यों रखी है साँदी चारा भी नहीं हिला जगह से अपनी

    गाय के एकदम पास खड़ा है बछड़ा

    भोर निकल गई निकल गई दुपहर आई गोधूलि बेला

    बछड़ा उसके थनों में मुँह गड़ाता चूमता-चटकारता दस करम करता

    लेकिन गाय नहीं पन्हा रही तो नहीं ही पन्हा रही

    रो रही है गाय धाड़ें मार-मारकर

    मार रही है ख़ुद को कोस रही है लातों को

    रंभा रही है वैसे ही रंभाती थी जैसे साँदी और चारे के लिए

    पटक रही है लातें पन्हा रही है गाय बह रहा है उसके थनों से दूध

    हकेल रहे हैं लोग हिलाए नहीं हिल रही है गाय

    राम नाम सत्य है सत्य बोलो गत्य है

    पछाड़ खाकर गिरी गाय बछड़े से लिपटती धाड़े मारती बोली

    भैया हम अनाथ हो गए मारे भय के बछड़ा चिमटता गया गाय से

    अब किसके लिए पन्हाऊँगी लतियाऊँगी किसको

    जड़वत् सुन्न पड़ी गाय सिसक रही है

    पूरी बाखर डूबी है घुप्प अँधेरे में रंभा नहीं रहे किसी के भी ढोर बछेड़ू

    खपरैलों की संध से झाँका एक तारा टिमटिमाता

    जर्जर पाँव लिए तारे की अगुवानी में उठ खड़ा हुआ सिसकता बूढ़ा बैल

    जा रही है गाय अटारी की ओर

    अटारी से आती सिसकियाँ कलेजा चीर रही हैं बूढ़े बैल का।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नीलेश रघुवंशी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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