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बीस साल बाद

bees sal baad

धूमिल

धूमिल

बीस साल बाद

धूमिल

और अधिकधूमिल

    बीस साल बाद

    मेरे चेहरे में

    वे आँखें वापस लौट आई हैं

    जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :

    हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।

    और जहाँ हर चेतावनी

    ख़तरे को टालने के बाद

    एक हरी आँख बन कर रह गई है।

    बीस साल बाद

    मैं अपने-आपसे एक सवाल करता हूँ

    जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?

    और बिना किसी उत्तर के चुपचाप

    आगे बढ़ जाता हूँ

    क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है

    कि ख़ून में उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना

    लगभग बेमानी है।

    दुपहर हो चुकी है

    हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं

    दीवारों से चिपके गोली के छर्रों

    और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में

    एक दुर्घटना लिखी गई है

    हवा से फड़फड़ाते हिंदुस्तान के नक़्शे पर

    गाय ने गोबर कर दिया है।

    मगर यह वक़्त घबराए हुए लोगों की शर्म

    आँकने का नहीं

    और यह पूछने का—

    कि संत और सिपाही में

    देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!

    आह! वापस लौटकर

    छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है

    बीस साल बाद और इस शरीर में

    सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए

    अपने-आपसे सवाल करता हूँ—

    क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है

    जिन्हें एक पहिया ढोता है

    या इसका कोई ख़ास मतलब होता है?

    और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ

    चुपचाप।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संसद से सड़क तक (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : धूमिल
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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