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आकस्मिक भेंट

akasmik bhent

फेदेरीको गार्सिया लोर्का

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और अधिकफेदेरीको गार्सिया लोर्का

    सूर्य पुष्प।

    नदी पुष्प।

    मैं :

    यह तुम थी? तुम्हारे सीने की धधकती

    चमक में, मैं तुम्हें देख ही पाया।

    वह :

    और ये फ़ीतों वाला मेरा कपड़ा

    इसने कितनी बार तुम्हें छुआ?

    मैं :

    तुम्हारे कंठ में सुन सकता हूँ, अनखुली,

    शुभ्र किलकारियाँ अपने बच्चों की।

    वह :

    मेरी आँखों में तिरते हैं तुम्हारे बच्चे

    वे हैं बिल्कुल हीरे जैसे चमकीले।

    मैं :

    यह तुम थी? अपने अंतहीन सुदीर्घ बालों को

    लहराती कहाँ चली जा रही थी, मेरी प्यारी?

    वह :

    चाँद पर–क्या तुम्हें हँसी रही?

    फिर नरगिस फूल की परिक्रमा भी की।

    मैं :

    मेरे सीने में एक साँप है जो सोता नहीं

    लेकिन पुराने चुंबनों से सिहर उठता है।

    वह :

    वे लम्हें खुल गए और जड़

    जमा लिए मेरी आहों पर।

    मैं :

    एक ही साँस से जुड़े हुए

    आमने-सामने, हम अजनबी हैं!

    वह :

    शाख़ाएँ फैल रही हैं,

    मुझसे दूर जाओ!

    हम दोनों ने ही जन्म नहीं लिया अभी।

    सूर्य पुष्प।

    नदी पुष्प।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा पत्रिका
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : फेदेरीको गार्सिया लोर्का

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