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बादल-राग

badal rag

 

एक

झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर!

राग-अमर! अंबर में भर निज रोर!

झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
सरित—तड़ित-गति-चकित पवन में
मन में, विजय-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव-घोर-कठोर—
राग-अमर! अंबर में भर निज रोर!

अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू, बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!
उथल-पुथल कर हृदय
मचा हलचल—
चल रे चल,—
मेरे पागल बादल!
धँसता दलदल,
हँसता है नद खल्-खल् 
बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महाविकल-बेकल,
इस मरोर से—इसी शोर से—
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे—गगन का दिखा सघन वह छोर!
राग-अमर! अंबर में भर निज रोर!

दो

ऐ निर्बंध!
अंध-तम-अगम-अनर्गल-बादल!
ऐ स्वच्छंद!
मंद-चंचल-समीर-रथ पर उच्छृंखल!
ऐ उद्दाम! 
अपार कामनाओं के प्राण! 
बाधारहित विराट!
ऐ विप्लव के प्लावन!
सावन-घोर गगन के
ऐ सम्राट!
ऐ अटूट पर छूट टूट पड़नेवाले—उन्माद!
विश्व-विभव को लूट-लूट लड़ने वाले—अपवाद!
श्री बिखेर, मुख-फेर कली के निष्ठुर पीड़न!
छिन्न-भिन्न कर पत्र-पुष्प-पादप-वन-उपवन,
वज्र-घोष से ऐ प्रचंड!
आतंक जमाने वाले!
कंपित जंगम,—नीड़-विहंगम,
ऐ न व्यथा पाने वाले!
भय के मायामय आँगन पर
गरजो विप्लव के नव जलधर!

तीन

सिंधु के अश्रु!
धरा के खिन्न दिवस के दाह!
विदाई के अनिमेष नयन!
मौन उर में चिह्नित कर चाह
छोड़ अपना परिचित संसार—
सुरभि का कारागार,
चले जाते हो सेवा-पथ पर,
तरु के सुमन!
सफल करके
मरीचिमाली का चारु चयन।
स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
अपना मुक्त विहार,
छाया में दुख के अंत:पुर का उद्घाटित द्वार
छोड़ बंधुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
जाते हो तुम अपने पथ पर,
स्मृति के गृह में रखकर
अपनी सुधि के सज्जित तार।
पूर्ण-मनोरथ! आए—
तुम आए;
रथ का घर्घर-नाद
तुम्हारे आने का संवाद।
ऐ त्रिलोक-जित्! इंद्र-धनुर्धर!
सुरबालाओं के सुख-स्वागत!
विजय! विश्व में नवजीवन भर,
उतरो अपने रथ से भारत!
उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
मौन कुटीर।
आज भेंट होगी—
हाँ, होगी निस्संदेह,
आज सदा-सुख-छाया होगा कानन-गेह
आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास,
आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

चार

उमड़ सृष्टि के अंतहीन अंबर से,
घर से क्रीड़ारत बालक-से,
ऐ अनंत के चंचल शिशु सुकुमार!
स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार।
अंधकार-घन अंधकार ही
क्रीड़ा का आगार।
चौंक चमक छिप जाती विद्युत
तडिद्दाम अभिराम,
तुम्हारे कुंजित केशों में
अधीर विक्षुब्ध ताल पर
एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम।
वर्ण रश्मियों-से कितने ही
छा जाते हैं मुख पर—
जग के अंतस्थल से उमड़
नयन-पलकों पर छाए सुख पर;
रंग अपार
किरण-तूलिकाओं से अंकित
इंद्रधनुष के सप्तक, तार;
व्योम और जगती के राग उदार
मध्यदेश में, गुडाकेश!
गाते हो वारंवार।
मुक्त! तुम्हारे मुक्त कंठ में।
स्वरारोह, अवरोह, विघात,
मधुर मंद्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि
छा लेती है गगन, श्याम कानन,
सुरभित उद्यान,
झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात।
वधिर विश्व के कानों में 
भरते हो अपना राग,
मुक्त शिशु! पुनः पुनः एक ही राग-अनुराग।

पाँच

निरंजन बने नयन-अंजन!
कभी चपल गति, अस्थिर मति,
जल-कलकल तरल प्रवाह,
वह उत्थान-पतन-हत अविरत
संसृति-गत उत्साह,
कभी दु:ख-दाह
कभी जलनिधि-जल विपुल अथाह,—
कभी क्रीड़ारत सात प्रभंजन—
बने नयन-अंजन!
कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर
चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर,
झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर,
सीस झुकाते तुम्हें तिमिरहर—
अहे कार्य से गत कारण पर!
निराकार, हैं तीनों मिले भुवन—
बने नयन-अंजन!
आज श्याम-घन श्याम, श्याम छवि,
मुक्त-कंठ है तुम्हें देख कवि,
अहो कुसुम-कोमल कठोर-पवि!
शत-सहस्र-नक्षत्र-चंद्र रवि संस्तुत
नयन-मनोरंजन!
बने नयन-अंजन!

छह

तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दु:ख की छाया—
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया—
यह तेरी रण-तरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक़ रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल!
फिर-फिर
बार-बार गर्जन 
वर्षण है मूसलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार।
अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
गगन-स्पर्शी स्पर्धा-धीर।
हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार—
शस्य अपार,
हिल-हिल,
खिल-खिल
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
अट्टालिका नहीं है रे
आतंक-भवन,
सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव-प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।
रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष
अंगना-अंग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
धनी, वज्र-गर्जन से बादल!
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं।
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़-मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार!

स्रोत :
  • पुस्तक : निराला संचयिता (पृष्ठ 46)
  • संपादक : रमेशचंद्र शाह
  • रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2010

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