वे इतनी ख़ाली नहीं रहतीं
जितना हम उन्हें सोचते हैं
वे हमारी नसों में भरी रहती हैं
और हर धड़कन संग फैल जाती हैं
पूरी देह में
एक घना पेड़ उगता है
और जाने कितनी लताएँ लिपट जाती हैं
हमारी त्वचा ऐसे झनझनाती है
जैसे एक साथ कितने विद्युत तार छू गए हों।
न होने का होना
पीड़ा में ज्यों सुख का होना है
चाँद का न होना
आकाश में
तारों की टिमटिमाहट का भर जाना है।
रिक्तताएँ अपने बराबर की जगहें बनाती हैं
हम सहमे हुए-से प्रवेश करते हैं उनमें
वहाँ एक स्थायी सूनेपन का गहन सन्नाटा सुनाई देता है
आँख खुलने से पहले एक खिड़की खुल जाती है
और निपट अँधेरी राहें जगमग हो जाती हैं बत्तियों से।
पानी की स्मृति भी प्यास बुझाती है
भीगने की स्मृति से भी तर हो जाती है देह
मुझे प्रेम की स्मृति से भी होता है प्रेम
ख़ाली जगहें स्मृतियों में ख़ाली नहीं रहतीं
स्मृतियाँ ख़ालीपन का विलोम हैं—
ऊँचाइयों और गहराइयों के असीम में विस्तृत
अपने न दिखने में जितनी दिखाई देतीं
उतनी ही छिपी हुईं।
ख़ाली जगहों की आत्मा विभाजित होती है
उनका हृदय चीरकर एक पेड़ निकलता है
और दो तनों में बँट जाता है
सूखने के बाद भी वह करबद्ध ताकता है आसमान
और आँधियों में काँपती अपनी जर्जर उँगलियों से
बादलों से थम जाने की प्रार्थना किया करता है।
उनकी आँखें सूखे तालाबों-सी होती हैं
कुदालों और खंतियों से
और-और गहरी होती हुईं,
उनके चारों ओर रुदाली बँसवारियाँ
रिसते हुए घावों पर मरहम लगाती हैं
और पछाड़ें खाकर लोटती हैं
अपने सुदीर्घ हाथों से उनका अस्तित्व सँभालती हुईं।
ख़ाली कुएँ में रहट की चरमराहट गूँजती है
ख़ाली आसमान में उठती है नीलकंठ की नीली उड़ान
ख़ाली फ्रेम में एक युगल की असंभव तस्वीर रहती है
ख़ाली आलमारी में पसरता रहता है कोई दूसरा ख़ालीपन
ख़ाली डायरी में अनलिखी कहानियाँ अनलिखी रह जाती हैं
ख़ाली सड़कों पर अनहुई दुर्घटनाएँ होती ही रहती हैं
ख़ाली बस्तियों में उजड़े हुए लोगों की पीड़ाएँ सिसकती हैं
ख़ाली गोदों में अनसुनी किलकारियाँ खनकती हैं
ख़ाली खेत हल की खरोंच और किसान की नोक-झोंक को भूलता रहता है
ख़ाली मूठ याद करती रहती है—कुदाल—याद करती रहती है धार
ख़ाली नदी में नावों के तिरने का अतीत तिरता है
ख़ाली पोखरे से वर्षा की कामना की सूखी हुई गंध आती है
ख़ाली डाल से बिछुड़ी पत्तियों की हरी खड़खड़ाहट सुनाई देती है।
पकी बेरों से लदे
पेड़ों के बीच में
विस्मृत संगीत बजाता हुआ
एक कच्चा रास्ता
नंगे पाँवों में काँटे-सा चुभता है,
झुकी हुई छत पर झुका बेल का पेड़
अकनता है
सूर्योदय की स्त्री-पदचाप,
प्राचीन मंदिर का प्रांगण सुना करता है
अनुच्चरित मंत्रोच्चार।
शांतचित्त हत्यारों की तरह मुस्तैद
लैंपपोस्ट्स देखते हैं
चिकनी काली सड़कों पर घिसटता एक भूरा साँप,
प्रेतों जैसे उड़ती हुई मेट्रोज
पहुँचाती रहती हैं नासमझ सवारियों को
ग़लत और ग़ैरज़रूरी जगहों पर,
चारमंज़िला मकानों की छतें अपराधमुक्त रहती हैं—
उनसे छलाँग लगाए हुए
परकतरे कबूतरों का ख़ून
पोंछ डालती है गलियों की भीड़।
कई ख़ाली जगहों के बीच
मैं नहीं पाता हुआ खोजता रहता हूँ
धरती के नक़्शे पर एक खोया हुआ अधिवास
दस हाथ जिसकी सुरक्षा करते थे
जिन्हें थामकर हम पहुँचते थे
उसके हृदय तक,
वह ‘कहीं नहीं’ दीखता अब!
वहां ‘कोई नहीं’ रहता अब!
उसे किसने नष्ट किया, कब?
वे सारी संज्ञाएँ, क्रियाएँ, विशेषण, भाषाएँ
स्वप्न, दृश्य, संगीत, छायाएँ
उपलब्धियाँ, अनुपलब्धियाँ, तृप्तियाँ, अतृप्तियाँ
तमाम-तमाम चमकीली और धुँधली
स्मृतियाँ
अनंत काल तक
सूर्योदयों-सूर्यास्तों के साथ
लुका-छिपी करती रहेंगी
और वे सारी जगहें
जो हमने ख़ाली छोड़ दी हैं
मृत्यु उन्हें अपने कुशल हाथों से भर देगी।
- रचनाकार : सुघोष मिश्र
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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