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छड़ी, घड़ी, रामायण

chhaDi, ghaDi, ramayan

अनिल मिश्र

अनिल मिश्र

छड़ी, घड़ी, रामायण

अनिल मिश्र

और अधिकअनिल मिश्र

    (कुछ कार्यालयों में परंपरागत रूप से अधिकारी या कर्मचारी की सेवा-निवृत्ति पर भेंट किया जाता है)

    इंतज़ार है विभाग के मुखिया का

    पूरा होते ही प्रबंध

    सूचना पर पधारेंगे

    सजा दी गई हैं

    फूलों की मालाएँ

    यथानिर्धारित मेज़ पर जलपान

    माइक की टेस्टिंग हो रही है

    रस्मी तौर पर कॉमरेड को

    अलविदा कहेगा ये सभागार

    जिसकी नियति में

    मिलना ही बिछड़ना है

    और बिछड़ना ही मिलना

    पहली पंक्ति में बैठा काँमरेड

    मंचासीन होगा

    आला अधिकारियों के बीच

    कीमत चुकानी पड़ी उसे

    इस सम्मान के लिए

    पूरे अड़तीस साल

    मन के लिए कुछ भी नहीं बदला

    कल और आज का अंतर

    बताते हैं

    सिर्फ़ आईना या कैलेंडर

    या फ़ाइलों पर जमीं

    धूल की परतें

    सोचते हुए सत्य

    उस सभागार में

    कोई वर्तमान में नहीं था

    उस सभागार में

    कोई वर्तमान नहीं था

    नाज़ुक शिशु की तरह

    सर्दी और ज़ुकाम से पीड़ित

    भविष्य के सीने पर

    सरसों का गरम तेल

    मला जा रहा है

    अतीत गंठिये के दर्द से

    बैठ गया है

    रास्ते की किसी बेंच पर

    यह वह दिन है

    जब दफ़्तर के वाटर कूलर ने

    कॉमरेड की गिलास से

    कुछ कहा है

    कुर्सी ने कुछ कहा तो नहीं...

    बेवजह कुछ कहने से

    बचती रही है कुर्सी

    सभागार खचा-खच भर चुका है

    जितने बैठे हैं

    उतने ही पीछे खड़े हैं लोग

    कॉमरेड ने

    अन्याय के विरूद्ध आंदोलन चलाए

    कॉमरेड ने

    लोहे को मोम की तरह गलाए

    कॉमरेड ये थे कॉमरेड वो थे

    कॉमरेड जो नहीं थे वो भी थे

    किसी के ग़म ने कुछ कहा

    किसी के अहम ने

    कुछ कहकर

    भाषणों में दोस्ती और दुश्मनी के

    कुछ निजी कारण सार्वजनिक हुए

    कुछ अंदर मसोस कर रह गए

    अवसर देखकर

    कॉमरेड को

    भेंट की गई छड़ी

    कमर और घुटनों में

    हौसला भरने के लिए

    कल भी

    कॉमरेड को

    भेंट की गई—

    घड़ी

    क्यों?

    यह सही वक्त बताएगी

    यह वक्त ही बताएगा

    और अंत में

    तुलसी की एक रामायण

    फिर पूछोगे क्यों?

    कैसे कहें

    कि कुछ शामों की सुबह नहीं होती

    फ़ाइल में नए पन्ने तो जुड़ते हैं

    कोई लिखा पन्ना मगर

    फिर से नहीं होता सादा

    क्या अयोध्या क्या लंका कांड

    रोज़ ही उठाना पड़ता है धनुष-बान

    चार पद चौसठ मात्राएँ

    तय करेंगी आगे की यात्राएँ

    भाइयों और बहनों

    सेवा से लेते अवकाश

    साथी के हाथों में है

    एक महाकवि की कृति

    इतना तो वह अच्छी तरह समझता है

    कि हर किसी को लिखना होता है स्वयं

    अपने जीवन का उत्तरकांड

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनिल मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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