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चंद्रिका स्थान

chandrika sthan

रश्मि भारद्वाज

रश्मि भारद्वाज

चंद्रिका स्थान

रश्मि भारद्वाज

गाँव के सीमांत पर सदियों से खड़ा था एक बूढ़ा बरगद—

किसी औघड़-सा अपनी जटाएँ फैलाएँ

अपने गर्भ में सहेजे था एक देवता-स्त्री को

यह रक्षक स्त्री है तो गाँव सलामत है, ऐसा कहते कई पीढ़ियाँ गुज़र गईं

उसके खोंइछे में हर दिन टाँक दिए जाते थे

दुःखों के अनगिन चाँद-सितारे

मन्नतों के कई गोटे

वह उन्हें वैसे ही सहेज लेती जैसे सैकड़ों सालों पहले कभी अपनी व्यथा को सहेजा होगा

मेरी दादी और उन जैसी कई औरतें

हर पखवाड़े बरगद की गोद में बने उस छोटे से स्थान की अँधेरी दीवारों पर सिंदूर से एक आकृति उकेरतीं

उसे हल्दी, चंदन और कुमकुम से सजातीं

और गीत गाती हुईं उस पर अपने आँसूओं का अर्ध्य चढ़ा आतीं

मेरे गाँव ने अपनी देवता-स्त्री ख़ुद गढ़ी थी

उसे दी थी अपनी पनियाई आँखें, अपने सूखे होंठ और अपना-सा ही रूप

बरगद का वह बूढ़ा वृक्ष

उनके कथा-गीतों को पक्षियों के कानों से सुनता

और उन्हें पंख मिल जाते

वे गाँव-गाँव उड़ते

हर नम आँख को तसल्ली दे आते

ब्याही हुई बेटी को मिलता अपनी माँ का संदेसा

प्रेमी उन गीतों में खोजते बिछुड़ी हुई प्रेयसी की स्मृतियाँ

कुँवारियों की आशंकाएँ उन्हें सुनकर चैन पाती थीं

उन गीतों में उग आती थीं पीढ़ियों की व्यथाओं की असंख्य लकीरें

जिन्हें संग-साथ गाते बूढ़े-बुज़ुर्ग देवता-स्त्री से नई नस्लों की ख़ुशहाली की दुआएँ माँगते

चंद्रिका स्थान एक बसेरा था

जहाँ ज़िंदगी की धूप में तप रही आत्माएँ सुकून पाती थीं

गपोड़ रिज़वान चचा छाँव में बैठ घंटों क़िस्से कहानियाँ बाँचते

उनकी बकरियाँ आस-पास घूमती नरम घास चरतीं

खेत में काम कर थकी पड़वा, गौरी, शमीमा वहीं बैठ खाती थी अपनी दुपहर की रोटी

और अँचरा ओढ़ कर लुढ़क भी जातीं

वृक्ष एक पिता था जिसकी फैली हुई मज़बूत भुजाओं पर झूला झूलते खिलखिलाते थे बच्चे

और उसकी रूखी-सख़्त शिराओं में दौड़ पड़ता हरा ताज़ा ख़ून

अँखुआ उठती नई कोंपलें

गाँव का पतझड़ हर साल बहुत जल्दी हार जाता था

देवता-स्त्री थी सबकी माँ

वह मुस्कुराती और खेतों का बसंत लौट आता

और फिर एक दिन अचानक एक पगडंडी ने देखा शहर का रास्ता

देवता-स्त्री की संगमरमर की चमचमाती मूर्ति गई

जिसके होंठों पर एक सदाबहार कृत्रिम मुस्कुराहट थी

उस मूर्ति के वैभव को समेटने के लिए छोटी पड़ गईं वृक्ष की भुजाएँ

अब वहाँ एक विशाल मंदिर है

वृक्ष अब नहीं रहा

दादी भी नहीं

और उनके समय की कई और स्त्रियाँ भी

अब वहाँ पक्षी नहीं आते

मज़दूर औरतें

रिज़वान चाचा अपनी झोपड़ी में बैठे ख़ाली निगाहों से मंदिर जाती यंत्रवत् भीड़ को देखते हैं

देवता-स्त्री अब लोहे के फाटकों और मंत्रों के तीव्र शोर में घिरी

अपनी धवल मुस्कान के साथ

एक पवित्र ईश्वर में तब्दील हो गई है

स्रोत :
  • रचनाकार : रश्मि भारद्वाज
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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