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टाइटानिक की सिंधु-समाधि

taitanik ki sindhu samadhi

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

टाइटानिक की सिंधु-समाधि

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

     

    सौ योजन पुल बाँध जिन्होंने
    थल-सम किया जलधि को पार,
    भारत की लक्ष्मी-स्वरूपिणी
    जनक-सुता को लिया उबार।
    नररूपी उन परमेश्वर का
    राम-नाम भज बारंबार,
    आओ, पाठक! विपद्-काल में
    देखें वीरों के व्यवहार।

    ऊपर नील नभोमंडल है,
    नीचे क्षार समुद्र अपार, 
    दोनों में अपूर्व समता है,
    दोनों का अद्भुत व्यापार।
    किंतु सिंधु-गांभीर्य देखकर
    नैश गगन चंचल है आज, 
    प्रतिबिंबित होकर पानी में
    कंपित है नक्षत्र-समाज!

    ऐसे में यह धीर भाव से
    कौन अपूर्व पर्वताकार—
    नभ में मेघ-समान सिंधु की
    छाती पर कर रहा विहार।
    सुनो, सुनो, मानों उसमें से
    निकल रही यह ध्वनि गंभीर,—
    “हटो, टाइटानिक आता है
    हे समीर! हे सागर-नीर!”

    मंद वायु से हिलता-डुलता
    गर्वित-सा है सिंधु अथाह,
    किंतु टाइटानिक जहाज़ को,
    ज़रा नहीं उसकी परवाह।
    पाल नहीं, मस्तूल नहीं निज
    कीर्ति-केतु-पट कर उड्डीन,
    चीड़-फाड़कर सिंधु-नीर को,
    चला जा रहा है स्वाधीन।

    जगती के जलयानों में है
    आज टाइटानिक सिरमौर,
    इस नव युग में बना कहीं भी,
    ऐसा श्रेष्ठ जहाज़ न और।
    विश्व-विदित इंगलैंड देश की
    कला-कुशलता का परिणाम,
    है जहाज़, या सभ्य-जगत का,
    है यह एक मनोहर ग्राम!

    ग्रंथागार, वाचनालय हैं,
    बने कहीं क्रीड़ा के स्थान,
    कहीं सरोवर, कहीं नाट्यगृह,
    और कहीं सुंदर उद्यान।
    यह जहाज़ जिसमें आ सकते
    यात्री साढ़े तीन हज़ार—
    निकल पड़ा मानों पंद्रहवाँ,
    रत्न सिंधु से शोभागार! 

    कर,-मुख-निधि-भू संख्यक सन्1 की
    चौदहवीं एप्रिल है आज,
    परसों चला विलायत से है,
    यह प्रासाद-समान जहाज़।
    यात्रीजन पँचगुने पाँच सौ,
    हैं जिनमें बहु नर-कुल-केतु,
    आरोही हैं इस पर सुख से,
    अमरीका जाने के हेतु।

    कहीं कहीं सोते हैं यात्री,
    कहीं कहीं पुस्तक का पाठ,
    कहीं हास-परिहास हो रहा,
    कहीं खेल-क्रीड़ा का ठाठ।
    कहीं प्रिया के संग मुदित मन
    करते प्रेमी प्रेमालाप,
    फैला है अति अचल भाव से,
    चारु चंचलालोक-कलाप।

    अटलांटिक सागर की शोभा
    देख कहा है कोई वीर,
    जा सकती है दृष्टि जहाँ तक
    भरा हुआ है केवल नीर।
    अहा! वेष्टनी दंड धरे वह
    कौन युवक करता है गान—
    “शासन कर सागर लहरों पर
    मेरे वीर ब्रिटेन महान!”

    यह क्या, यह क्या हुआ अचानक
    धक्के पर धक्के का ज़ोर,
    होने लगा यहाँ सहसा क्यों,
    भय-सूचक घंटे का शोर!
    चारों ओर हुआ कोलाहल
    हाय! हाय! क्या होगा आज,
    हिम की शैलाकार शिला से,
    टकरा कर फट गया जहाज़!

    एक साथ आसन्न-मृत्यु का
    देखा सबने दृश्य समक्ष,
    नभ में भंगपक्ष-पक्षी-से,
    लगे धड़कने सबके वक्ष।
    यह जहाज़ भी डूब जाएगा,
    कौन जानता था यह बात!
    यह यात्रा अंतिम यात्रा है,
    था किस यात्री को यह ज्ञात!

    ऐसे समय सोच के बदले
    है धीरज ही में कल्याण,
    इस कारण सब लगे सोचने
    कैसे बच सकते हैं प्राण!
    नावें इतनी नहीं कि सबकी
    रक्षा का हो सके उपाय,
    कौन मरेगा, कौन बचेगा?
    कैसा कठिन प्रश्न है हाय!

    तत्क्षण एक वीर-कंठ-स्वर
    धीर भाव से हुआ प्रमाण—
    “पीछे हटें पुरुष, हो पहले
    स्त्रियों और बच्चों का त्राण।”
    कप्तान स्मिथ की आज्ञा से
    पीछे हटे धन्य सब धीर,
    है जिनमें आस्टर से धनपति,
    तथा स्टेड से नैतिक वीर।

    हाय! दृश्य आगे का अब वह
    है करुणा का पूर्ण प्रताप,
    पति-पत्नी का, पिता-पुत्र का,
    है जिसमें अंतिम साक्षात्।
    आग्रह के वश अबलाओं का
    वह रोते-रोते प्रस्थान,
    है प्रत्यक्ष कि स्वप्न, हाय! कुछ
    समझ नहीं पड़ता भगवान्!

    कितनी ही महिलाएँ अपने,
    पतियों का तज सकीं न साथ,—
    बोलीं लिपट कंठ से उनके,
    “साथ मरेंगीं हम हे नाथ!”
    “प्रिये! धैर्य धर जियो हाय! तुम
    देखो सुत के मुख की ओर,”
    रोई यों सुन कोई पत्नी,
    शोक-सिंधु में उठी हिलोर॥

    हुए व्यग्र भी कितने ही जन
    प्राण बचाने को उस काल,
    किंतु वीर-सिंहों के वन में
    होते हैं क्या नहीं शृगाल?
    जो हो, कर्णधार की वाणी
    सुनी गई फिर यों गंभीर—
    “छी! छी! सच्चे वृटिश बनो रे,
    मरो भले ही, न हो अधीर।”

    ऐसी गड़बड़ में भी भीतर
    निश्चल है वह नरवर कौन?
    अहो युवक! तुम सर्वनाश के
    समय यहाँ बैठे हो मौन!
    वीर फिलिप निज सोच न करके
    तार भेजने में है लग्न—
    “दौड़ो, चलो, बचाओ, आओ,
    हुआ टाइटानिक जल-मग्न!”

    देखो, एक मनुज वह जल में
    तैर रहा है किसी प्रकार,
    कुछ नौकारोही जन उसका,
    करने जाते हैं उद्धार।
    किंतु सुनो वह क्या कहता है
    “नौका सह न सकेगी भार—
    प्राण बचाओ, जाओ तुम सब
    है मुझको मरना स्वीकार।”

    औरों की रक्षा करके यों
    मर सकती जिसकी संतान,
    क्यों न भला वह देश जगत में,
    हो सम्मानित और महान?
    प्राण बचाने को औरों के
    तज सकता है जो निज देह,
    जितना गौरव प्राप्त करे वह
    है थोड़ा ही निस्संदेह।

    आए नहीं आठ सौ जन भी
    नौकाएँ भर गई तमाम,
    सोलह सौ यात्री निर्भय हो,
    मर कर अमर कर गए नाम।
    वह मरना भी दर्शनीय है,
    है सजीवता का वह चित्र,
    उस स्वर्गीय भाव को भाषा,
    प्रकट करेगी कैसे मित्र!

    वह देखो, आस्टर-से धनपति,
    तथा स्टेड-से नैतिक वीर—
    एक-एक सामान्य मनुज की,
    रक्षा कर तज रहे शरीर!
    वह देखो, वीरों की श्रेणी
    करके आत्मत्याग पुनीत,
    धन्य मृत्यु को भेंट रही है,
    बैंड बजा कर, गाकर गीत!

    (गीत)

    “मृत्यु! मृत्यु! आ जा, आ जा, तू,
    स्वागत करते हैं हम लोग,
    बड़े भाग्य से मिल सकता है,
    ऐसे गौरव का संयोग।

    तू तो केवल नियति मात्र है,
    फिर तुझसे भय का क्या काम?
    हम अपना कर्तव्य कर चुके,
    लेते हैं अब चिर-विश्राम।

    हँसते-हँसते स्वर्ग-धाम में
    भोगेंगे दुर्लभ सुख-भोग,
    मृत्यु! मृत्यु! आ जा, आ जा, तू,
    स्वागत करते हैं हम लोग!

    बृटिश-जाति मरने से डरती,
    तो क्या कर सकती कुछ काम?
    सिंह-उपाधि-युक्त पृथ्वी पर,
    हो सकता क्या उसका नाम?

    मृत्यु! न डर कर ही तुझसे हम,
    यह उन्नति कर सके समस्त—
    बृटिश-राज्य में आज देख लो,
    सूर्य नहीं हो सकता अस्त!

    यह तो होता ही रहता है
    नश्वर तनु का योग-वियोग,
    मृत्यु! मृत्यु! आ जा, आ जा, तू,
    स्वागत करते हैं हम लोग!

    वे जग को चौंकाने वाले
    अद्भुत-अद्भुत आविष्कार,
    वह वैज्ञानिक वृद्धि कि जिससे,
    होता है अपूर्व उपकार।

    वे यंत्रादि वाष्प-विद्युन्मय,
    वे वाहन, वे व्योम-विमान,
    प्रकटित कर सकते हम कैसे
    करते जो न आत्म-बलिदान?

    हम मर जाएँ परंतु हमारे
    अजर अमर हैं सब उद्योग,
    मृत्यु! मृत्यु! आ जा, आ जा, तू,
    स्वागत करते हैं हम लोग!

    हे करुणावरुणालय प्रभुवर!
    विश्वमूर्ति, विश्वंभर, ईश!
    नाथ! तुम्हारे पद-पद्मों में,
    अर्पण करते हैं हम शीश।

    देव! विनय स्वीकृत कर लीजे,
    कीजे निज सामीप्य प्रदान,
    परम पिता हैं आप हमारे,
    दीजे आत्म-शक्ति भगवान!

    शांतिमयी यह मृत्यु हमारे
    दूर करे सारे भव-रोग,
    मृत्यु! मृत्यु! आ जा, आ जा, तू,
    स्वागत करते हैं हम लोग!”

    अहा! शब्द-सागर में डूबा
    अब्धि और आकाश महान,
    हुआ साथ ही मग्न सिंधु में,
    भग्न टाइटानिक जल-यान!

    हुए आज निर्वाण भले ही
    वे बहु जीवन-दीप अनित्य,
    उदित हुआ आदर्श नाम का,
    जग में एक नया आदित्य।

    वीरो! हम विदेशवासी भी
    देते तुम्हें अश्रु-जल-दान,
    धन्य धैर्यमय त्याग तुम्हारा,
    तुम्हें शांति देवें भगवान!

    मिलती नहीं महत्व-प्रदर्शक
    आज तुम्हारे योग्य उपाधि,
    प्रलय-काल में भी न मिटेगी,
    धन्य तुम्हारी सिंधु-समाधि!

    हाय! आज उस दुर्घटना पर,
    हो कर करुणा का उद्रेक—
    तेरह सौ वत्सर पहले की,
    याद आ गई घटना एक।

    भारतवर्ष तीर्थ को आते,
    बौद्ध भिक्षुओं ने इस वार—
    ली समाधि थी बंग-सिंधु में,
    करके औरों का उद्धार।

    भग्न हुई ज्यों ही वह तरणी,
    पाकर शिखराघात कठोर—
    दैवयोग से एक दूसरी,
    नौका आ पहुँची उस ओर।

    करना चाहा उसने पहले 
    बौद्ध भिक्षुओं का उद्धार,
    किंतु उन्होंने पहले अपना
    बचना नहीं किया स्वीकार।

    अन्य जनों का त्राण हुआ पर
    रहा तरी में स्थान न शेष,
    बौद्ध भिक्षुओं ने तब अपनी
    देकर सामग्री नि:शेष।

    बोधि-द्रुम-तल में उस सबके,
    अर्पण का करके उपदेश—
    ली समाधि 'अमिताभ' पाठ कर,
    सफल किया जीवन उद्देश।

    बौद्ध भिक्षुओं की वह वाणी
    अब भी मुग्ध कर रही प्राण—
    “संभव नहीं बौद्ध होकर जो
    करें प्रथम हम अपना त्राण।
    हमें अपेक्षा करनी होगी,
    बुद्धदेव की है यह उक्ति—
    कब तक? जब तक तुच्छ कीट तक,
    पा न सकें पृथ्वी पर मुक्ति!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 214)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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