हिंसक रात चुपके-चुपके आती है
hinsak raat chupke chupke aati hai
रवींद्रनाथ टैगोर
Rabindranath Tagore
हिंसक रात चुपके-चुपके आती है
hinsak raat chupke chupke aati hai
Rabindranath Tagore
रवींद्रनाथ टैगोर
और अधिकरवींद्रनाथ टैगोर
हिंसक रात चुपके-चुपके आती है
दुर्बल हुए शरीर की कमज़ोर कुंडी को तोड़कर
अंतर में प्रवेश करती है।
जीवन के गौरव के रूप का हरण करती रहती है।
कालिमा के आक्रमण से मन हार मानता है।
इस पराजय की ग्लानि, इस अवसाद का अपमान
जब गाढ़ा हो उठता है, सहसा दिगंत में
स्वर्ण-किरणों की रेखांकित पताका दिख जाती है।
आसमान के मानो किसी दूर केंद्र से
‘मिथ्या-मिथ्या’ की ध्वनि उठती है।
प्रभात के खुले प्रकाश में
अपनी जीर्ण देह के दुर्ग-शिखर पर
दुःख-विजयी की मूर्ति को देखता हूँ।
- पुस्तक : रवींद्रनाथ की कविताएँ (पृष्ठ 315)
- रचनाकार : रवींद्रनाथ टैगोर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1967
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