मुझे मालूम था
कोई कबूतर फड़फड़ाकर उड़ेगा छत से
तो उसकी गर्म उड़ान को पकड़कर
मैं उसे कविता में तब्दील कर दूँगा
कोई प्यार मेरे तलवों में कीलें ठोंककर मेरे अस्तित्व पर लगाम लगा देगा
और दिल में घोंप देगा ख़ंजर
तो मैं उसे पन्नों पर उतारकर कवि हो जाऊँगा
लेकिन मैंने कविता के इस बिंब को जाने दिया
प्यार को भी भुला दिया
यह सोचकर कि कोई न कोई आग जलती रहनी चाहिए आदमी के अंदर
मैंने कबूतर को उड़ जाने दिया छत से
क्योंकि हर उड़ान के पर नहीं काटे जा सकते
कभी-कभी दिल और ख़ंजर को भी हमेशा की तरह
एक साथ याद किया जाना चाहिए दुनिया में
हर दुःख और घाव को कविता से ठंडा नहीं किया जाना चाहिए
इसलिए अब जब भी कोई कबूतर
किसी पेड़ का पत्ता
कोई फूल और कोई दिल
कहीं उड़ता, हिलता, खिलता, धड़कता देखता हूँ
मैं उसे ख़ून का धब्बा बनाकर कैलेंडर की तारीख़ों पर चिपका देता हूँ।