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व्यर्थ है स्मृति का पहरा

byarth hai smriti ka pahra

विष्णु दे

विष्णु दे

व्यर्थ है स्मृति का पहरा

विष्णु दे

और अधिकविष्णु दे

    व्यर्थ है स्मृति का पहरा,

    व्यर्थ ही द्वार बंद करता हूँ, अगर एक बार खिड़की खोल दूँ

    तो दिन-रात भाग जाएँ अँधेरे काल के पहाड़ पर।

    यौवन की निःसंगता आज बुड्ढी हड्डियों में टीसती है,

    हृदय का चेरापूंजी नए तर्क से विस्तृत सहारा बन गया है।

    मैं तो एकांत शून्य में हूँ, तुम स्वदेश में कब थीं यह भी याद नहीं।

    फिर भी अगर तुम आईं तो बकुल का यही पौधा बढ़ता देखूँगा;

    अगर आईं तो तुम्हारे ही बाग़ की टहल करूँगा, रोज़ फूल चुनूँगा।

    सूर्य अस्त होता है, प्रतिदिन आकाश में गोधूलि आती है,

    उसके माथे पर विवाह के रंग में रँगा एक लाल तारा दमक उठता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्मृति सत्ता भविष्यत् तथा अन्य श्रेष्ठ कविताएँ (पृष्ठ 21)
    • रचनाकार : विष्णु दे
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1987

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