एक रोज़ ख़त्म हो जाएँगी
अधूरी इच्छाएँ भी
जो रोज़ सुबह गिलहरी के पंजे से तिनका भर छूट जाती है
कौवे की काँव में गूँजती चार दिशाओं का फेरा लगाती है
उस परिंदे की तरह जो मौसम के साथ चले जाते हैं बहुत दूर
बन जाते हैं प्रवासी
जिस रोज़ वे लौटते हैं अपने घर की तरफ़
ज़रूरी नहीं उनके साथ उनका मन भी लौटता हो
बचे रह जाते हैं राह जोहते उनके अपने
सब नष्ट होता दिखता है पर होता नहीं
पंख झड़ गए से मालूम होते हैं
दुनिया घूमना भी
अधूरी इच्छाओं में शामिल पहली इच्छा हो सकती है
एक ग़रीब के लिए घर की छप्पर
बच्चे के लिए खिलौना
बुज़ुर्गों के लिए
एक भरपूर जीवन की
तलाश
एक बच्ची का अस्तित्व!
लेकिन क्या ये कभी पूरी नहीं होतीं!
हे प्रकृति!
माफ़ करना
जब नीम का पेड़ बुलाए तो कहना मानव खो गया है
दवाओं की फिरौती कर रहा
साँसें ख़रीद से बाहर हो गई हैं
जो बचे हैं वे अपने-अपने सपने में व्यस्त हैं
कोयल कूक रही है
हवा चल रही है गिलहरी आ गई है
आ गई है एक-एक कर कई यादें
कहीं दूर से किसी बच्चे को पुकारा जा रहा है
स्कूल के बीच टिफ़िन की महक
माँ का लुढ़का हुआ आँसू
परीक्षा और अधूरा नंबर
करियर और बड़ा पद
बच्चे की ऊऊऊऊऊ की गूँज
दीवाली के मेले की होड़
बच्चों-बूढ़ों की लड़ाई के बीच गट्टे की थैली
जलेबी की चाशनी
सोने की घड़ी सिर्फ़ पाँच रुपए में
मेले में मुँहमाँगी मुराद पूरी हो रही है
हैरानी पसर गई है
सच है या सपना
खिलखिलाते चेहरे
जगमगाते शब्द
इन सबके बीच सब क्या नष्ट हो जाएगा!
क्या यादों के एलबम में रहेंगे सिर्फ़ अधूरे चित्र!
हर मौसम न जाने कितने बच्चे, बूढ़े, जवान चले जाते हैं
चुक जाती हैं उनके साथ उनसे जुड़ी अपेक्षा
तो क्या अपेक्षा फिर नहीं उपजती!
कई पक्षी बूढ़े होकर मरते हैं
उनके परिजन ज़रूर शामिल होंगे
एक जीवन के अंत में एक परिजन बचे ही रहेंगे
और बची रहेगी तमाम उम्मीद
अधूरी इच्छाओं की लय में शामिल
दूर प्रदेश में उपज रही होंगी तमाम विखंडित इच्छाएँ
पूरेपन की आस में
जीवन का एक अंश करुण
एक मृदु
एक इच्छा में विलीन नहीं हुआ करता जीवन
जीवन की खोज में
कुछ अधूरा पूरा भी तो होता है
शनै: शनैः शनै:..!
- रचनाकार : अर्चना लार्क
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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