किसमें से?
कब और कैसे?
जन्मा यह काल?
किसके द्वारा?
किसके लिए?
हुआ यह इंद्रजाल?
कौन-सी है उसकी जड़?
कैसे बंद करता है वह अपना मुँह?
क्या है उसकी भाषा?
कैसी है उसके शब्दसागर की गर्जना?
कौन यह काल?
क्या है उसका पारिभाषिक शब्दजाल?
किस आदि-प्रात के झुटपुटे के समय
थके-माँदे विचार जैसा
फीके पड़े किसी भोर के तारे जैसा
आदि-वेद जब मुखरित हो उठा
जगी मानव जाति ने
जागी हुई मानव जाति को ही
जगाया था तब?
क्या तब?
जिस किसी भी तरह
जन्मा यह काल?
उस काल का
पैदा हुआ क्या माप?
पैदा हुआ जो अपने-आप
न जिसका कोई अंत?
इस चिरंतन काल की
परिभाषा है क्या?
आदि में है क्या?
सब कुछ है शून्य
शून्य की निद्रा में
सूर्य जन्मा स्वप्न सा
शायद
वह निद्रा ही काल हो!
उसका दूसरा नाम है
प्रश्नवाचक चिह्न
वह सुरासुर मानवों का है पब्लिक-पार्क।
शून्य में जन्मा सूर्य
उस सूर्य के साथ जन्मा काल
तो उस काल के जननकाल को गुनिए।
अनगिनत वर्षों को गुनिए।
क्षीरसागर में ही जनमी कामधेनु-सा
काल-समुद्र में जन्मा क्या यह काल?
काल का स्वरूप पुष्प
वाष्प नहीं,
काल का रहस्य स्वाँस है
गाँठ नहीं,
मानव-आह की यह सांत्वना,
परिवर्तनों की है जोड़
हमसे न हो पाने वाली निपुणता
सृष्टि-नियंता के हाथ
तीन तारों वाली वीणा (हार्प) है,
प्रथम संज्ञा है
प्राण का है वह सर्वनाम
है एकमात्र असंपूर्ण क्रिया
मृत्यु का है पर्याय
वेदांती का आप्त मित्र
विज्ञान का है गर्भ शत्रु
साधारण मनुष्य का है मार्गदर्शक
लोक की है रश्मि
काल है हमारी आशाओं के प्रश्नों का जवाब
काल है हमारे आशयों के लिए चुनौती!
समष्टि जीवन की मरुस्थली पर
व्यष्टि जीवन
हो सकता है बालू का एक कण
किंतु
वैयक्तिक रूप से प्रति व्यक्ति का काल
उस व्यक्ति की पहली साँस से शुरू होकर
अंतिम बार पलकों के मूँद जाने पर समाप्त होता है
बस इतने भर में
वह कैसे कहे कि
उससे पहले उसका काल नहीं है?
मातृगर्भ में
योगनिद्रा में
उलटे लटक
दस माह की तपस्या का
पारमार्थिक वय क्या है?
क्या वह भी
उस व्यक्ति का वैयक्तिक काल नहीं है?
उससे पहले
उस गर्भ में आने से पूर्व
पिता के मन में विचार-सा
तमस में झलक-सा
उसकी तपस्या का चरम वरदान-सा
चर्म की चाह-सा
शरीर-भर में व्याप्त होकर
उसके काल के किवाड़ खोल
आकार बना लेने के लिए
अवसर जब बना लिया
तभी
किसी व्यक्ति का जीवन काल
अपने-आप
अपना श्रीगणेश कर लेता है।
दादा-परदादाओं के काल के साथ
आदि मानव के आविर्भाव के
उन पहले दिनों के
प्रत्येक व्यक्ति के
जीवन के
बही-खाते के
प्रथम पृष्ठ पर
काल
जमा-खाते में लिखा गया।
जादूगर के पिटारे में रखी पेटी में बंद
पेटी-सा
भविष्य काल में
भविष्य काल में ही
भूतकाल तथा वर्तमान काल निहित हैं।
उस जादूगर द्वारा मुँह से निकलते
रंग-बिरंगे गोले में तागे-सा
घबरा देने वाला गंभीर विचित्र
यह काल-जादूगर कौन है?
यह झमेला क्यों रचता है
जहाँ तक जाती कल्पना
वहाँ तक है काल
कल्पनाओं तथा आहों को
खाता है काल
मानव-मत्स्य का वह है काँटा
और मानव ने
उसी पर तलवार खींची है
जीवन के मेले में
खर्च करने के लिए
काका जि द्वारा दी गई रेज़गारी-सा है काल।
चर-अचर जीवन कोटि हैं
उसके श्रीसंपन्न बंधु वर्ग
मानव ने पौत्र को जो दिया
वह विरासत है काल।
काल-ज्ञान के रहस्य को जानने के लिए
काव्यों का अध्ययन किया है
तत्व को परखा है
कर्मयोगियों को देखा है
किया है तप।
ऊँचाइयों तक छलाँगें भरी
गहराइयों को परखा
विख्यात विचित्र चित्रकार
'सर्बदार दाली' (आलमाईटी)
द्वारा चित्रित
धूप में सूखने के लिए डाला गया कैनवास
पहियों के गालों में फँसे काल ने
मुझे धमकाया
मुझे भुलाया काव्यों ने।
तत्व सिर पर चढ़ा
तपस्या बिगड़ गई।
काल है एक अनबूझा प्रश्न
काल है एक अबूझ तृष्ण
अवकाश नही वैज्ञानिक को
संदेह दूर नहीं होता वेदांती का।
पराजय के रेतीले टीलों में सहनशील बन
जिज्ञासा की कार चलाता है मानव
ख़तरों के भँवरों में ही साहस से
गवेषणा के जहाज़ को बचा ले जाता है मानव।
प्राणों को ही पेट्रोल बनाता है
काल की उल्टी धारा में तैरता है।
“योपाम् पुष्पम् वेद
योपाम् वेदम्”
यही है मनुष्य का आक्रोश
जिससे
श्राप देने वाला काल
शांत होगा
धूर्तता करने वाला काल
दब जाएगा।
धर्मिक विद्युत तरंगो के धन (+) ऋण (-) पक्षों में
परमाणु शस्त्रों के सहारे
गवेषणा के तथ्यों द्वारा
गति को जीत रहा हूँ
अंतरिक्ष को आक्रांत कर रहा हूँ।
मेधा की टेस्ट-ट्यूब में इस काल को डाल
उबलते हृदय पर रख
उबाल डालूँगा
मानव-समाज के उपयोग परिणामों के लिए
मेहनत करूँगा
गीत गाऊँगा।
कल्पना से परे
कल्पनाओं के घने जंगलों में से
काल को पकड़ लाऊँगा
और
खंभे से बाँध दूँगा।
पालतू बना कर
हमारे रथ में जोत दूँगा
बीते हुए काल में गले क्षणों को
जमा दूँगा।
उसे पकड़ लाऊँगा
भविष्य काल में निहित
विषम क्षणों के तत्व को
विज्ञान के अस्त्रों से चूर-चूर कर
उनसे होने वाले ख़तरे को मिटा दूँगा
टेढ़े-मेढ़े
प्रगतिवान काल-पथ को
कष्टों के
कंकड़ो से रहित कर दूँगा
काल को आपका ग़ुलाम बना दूँगा
आँखों में ज्योति जगा दूँगा
भूतल-सवर्ग के द्वार खोल दूँगा।
- पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 94)
- संपादक : माधवराव
- रचनाकार : आरुद्र
- प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
- संस्करण : 1985
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