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आत्मीय संलाप

atmiy sanlap

मोना गुलाटी

मोना गुलाटी

आत्मीय संलाप

मोना गुलाटी

और अधिकमोना गुलाटी

    तुम जब प्यार करते हो

    तब कितने भीतर चले जाते हो तिलस्मी

    अँधेरे में सीढ़ियाँ ढूँढ़ते-ढूँढ़ते :

    पहुँच जाते हो खंडहर के

    पास; और पाते हो स्वयं को झाँकते

    सूखी हुई झील में!

    उदासी का एक रंग इतना चमकीला और भुरभुरा हो सकता है

    और खुरदरे स्पर्श की आहट से चौंक उठता है

    तुम्हारा

    रोम-रोम :

    प्यार में हो सकती है इतनी तिक्त गर्माहट,

    इसका आभास

    शहर के तपते और

    नंगे चौराहों पर पेट की अंतड़ियों में मुड़ते

    हुए तुम्हें अकस्मात् हुआ होगा और याद गया होगा

    खंडहर का चिकनापन और जलती हुई दोपहरी में छाँव ढूँढ़ते

    हुए युग्म :

    उदास होना : चुपचाप

    करवट बदलना है : कुछ नहीं होता

    केवल जिस्म के कुछ हिस्से दब जाते हैं

    और हथेलियाँ खुल जाती हैं।

    प्यार करना और उदास होना

    दोनों का स्पर्श कितनी आत्मीय

    सनसनाहट के साथ शाम में उतरता है

    पंछियों के

    कलरव को लिए और

    पूरी की पूरी नदी में डूब जाता है

    काला अंधा पहाड़ : प्यार

    का नाम लेता हुआ

    उदास!

    अपने आपमें संवाद के साथ जुड़ना

    प्यार करने का ढंग है

    करिश्मा नहीं : और इसे जानने के लिए

    लाइब्रेरी के सूने कोने को तलाशना

    आवश्यक नहीं है : रैक में किताब

    जमाते हुए तुमने सोचा :

    और बाहर धूप में गए!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 113)
    • रचनाकार : मोना गुलाटी

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