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जीवन का आनंद है होली

होली हिंदू जीवन का आनंद है। जीवन में यदि आनंद न हो तो वह किस काम का?

जिये सो खेले फाग, मरे सो लेखे लाग।

मानो जीवन का सुख होली है और जीना है तो होली के लिए। चार त्योहार हिंदुओं के मुख्य हैं। श्रावणी या सलोनो ब्राह्मणों का त्योहार है, इसमें देव पितृगण का वार्षिक तर्पण होता है। यह हुआ केवल कर्म-धर्म। दूसरा है दशहरा, इसमें खड्ग आदि की पूजा होती है; वीरता के खेल होते हैं। यह क्षत्रियों का त्योहार है। यह हुआ युद्ध-धर्म। तीसरा त्योहार दीपमाला या दीवाली जगाई जाती है। यह वैश्यों का त्योहार वाणिज्य-धर्म। चौथी यही आनंद देने वाली होली है। यह शूद्रों का त्योहार है। यह है केवल आमोद के लिए। चारों वर्ण के लोग सबको मानते हैं। विशेषकर होली में सब एक हैं। मानो होली उस एकता को दिखाने ही आती है।

आज चारों वर्ण के लोगों की एक ही सी दशा है। सब मस्त हैं। ग्यारह महीने दूसरे कामों के और होली आनंद की। जीवन भर की हँसी-ख़ुशी जिस पर निर्भर हो, वह त्योहार प्यारा क्यों न लगे। जिनका जैसा स्वभाव है, जैसी प्रकृति है : वह उसी तरह का आनंद इस अवसर पर मनाते हैं। उच्च हृदय लोग सबसे मिलते हैं। सबका जी हाथ में लाने को दावत-जलसे-नाचरंग कराते हैं। अबीर-गुलाल-पिचकारी से मित्रों को रँग कर आनंद में मग्न हो जाते हैं। जो इनसे भी अधिक खुले लोग हैं, वह धौल-चपत और पगड़ी उछालने तक नौबत पहुँचाते हैं। धूल-कीचड़ तक हाथ बढ़ाते हैं। परंतु साल भर में केवल एक धुरहँड़ी का दिन ही ऐसा होता है। गंभीर लोग रंग-पिचकारी तक ही बस करते हैं। दिल्लगीबाज़ गाली भी दे लेते हैं। ऊल-जूल भी बक देते हैं। स्त्री-पुरुषों में भी अपने दरजे के अनुसार होली होती है।

भाभी देवर से होली खेलकर अपने वात्सल्य भाव का परिचय देती है। इस आनंद को कुछ हिंदू कुटुंबी ही अनुभव कर सकते हैं। स्त्री-पुरुषों की होली की बहार ब्रज में देखना चाहिए।

बच्चे ख़ूब सरलचित्त, परंतु ख़ूब ही चंचल होते हैं। इससे उनका आनंद सबसे दो हाथ आगे बढ़कर होना चाहिए। वे गधे पर चढ़ते हैं, मुँह काला करते हैं, जूतों के हार पहनते हैं। वे ख़ाक-धूल और कीचड़ की वर्षा करते हैं। वे उछलते-कूदते, नाचते-गाते और ताली पीटकर हो-हो करते हैं। आप इसे असभ्यता कहेंगे या सभ्यता? सभ्यता, सभ्यता, सभ्यता की चिल्लाहट भूलकर एक बार ख़ूब ग़ौर से देखो। कितनी बड़ी बेफ़िकरी है, कितनी भारी मस्ती है, कैसा आनंद है—यह प्रेम, यह एकता, यह आनंद क्या जीवन भर में फिर पाने की तुम्हें आशा है? इन बालकों के आमोद में कुछ बुरी इच्छा नहीं है। कुभाव नहीं है। ख़ाली आमोद है। ऐसा स्वर्गीय भाव क्या असभ्यता है?

वर्षों की शत्रुता को यह होली तोड़ती थी। जिनकी आपस में शत्रुता होती थी, उनमें से एक को लेकर लोग दूसरे के घर जाते थे। वर्षों की शत्रुता का मैल धोने के लिए पिचकारियों से तर करते थे। अबीर उड़ाते थे। इससे भी काम न चलता तो धूल-कीचड़ फेंक कर जूते का हार दिखाते थे। गधे की सवारी सामने आती थी। मुँह काला करने को स्याही आती थी। हू-हुल्लड़ होकर सब एक हो जाते थे। आपस के बैर-भाव को गधे पर चढ़ाकर काला मुँह करके जूतों का हार पिन्हाकर शहर में घुमाकर शहर से बाहर कर देते थे।

फूलों में काँटे भी होते हैं। कुछ नीची प्रकृति के लोग यदि बेहूदे स्वाँग भरते हों या गंदे इशारे करते हों तो आश्चर्य नहीं है। उससे होली की पवित्रता में कुछ दोष नहीं आता है। इससे उल्टी लोगों की परीक्षा हो जाती है। कुछ लोग होली के दिन अधिक शराब पीकर शराबी की ख़राबी दिखाते हैं। होटलों और दूकानों पर पीकर सभा में आकर शराब के विरुद्ध लेक्चर देने वालों से यह लोग तब भी भले हैं।

घर में पीकर पंटलून खोलकर नाचना और साहब के सामने शराब की निंदा करने वाले बारहमासिये शराबियों से यह फ़सली शराबी भले हैं। छिपकर पाप करने वालों से यह होली में बेहूदगी दिखाने वाले भले हैं।

होली द्वारा उच्च श्रेणी की सभ्यता का झंडा हाथ में लेकर हिंदू सभ्यता की रक्षा करते हैं। बड़ी परीक्षा का स्थल होली है। इतनी भारी बेहूदगी के बाद लोगों का चित्त प्रफुल्लित और हृदय पवित्र रहता है। होली पवित्र है प्रत्यक्ष। होली में किसी प्रकार का पाप नहीं, गुप्त रीति से बुरी इच्छा नहीं। होली खेलकर रंग-धूल उड़ाकर सब लोग स्नान करते हैं। स्वच्छ वस्त्र धारण करके भगवान कृष्णदेव के मंदिर में जाते हैं। वहाँ स्वयं ईश्वर से होली खेलकर लाल-लाल होते हैं। कहिए होली कैसी चीज़ है? एक बार हृदय की आँख खोलकर देखो कि होली के तुल्य संसार में किसी जाति का भी कोई भी आमोद भरा उत्सव है?


बालमुकुंद गुप्त का यह ललित निबंध ‘भारत मित्र’ (मार्च-1899) से साभार है।

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