एक
आस-पास कोई भी चित्र नहीं है अमृता शेरगिल का
सिर ढके कातर आँखों वालीं अँधेरे की स्याही में लिपटीं
औरतें नहीं हैं
सुपर बाज़ार की शेल्फ़ों से विदेशी परफ़्यूम लपकती कोई हैं
नई रानियाँ रवि वर्मा की
जो प्लेटिनम और हीरों से सजीं
हिंसा और प्रेम की कथा गाती फ़िल्म देखने बैठी हैं
हुसैन के भारी-भरकम काष्ठ चेहरे यहाँ बदली हुई शक्लों में
बहुरुपिए बनकर बाज़ार भ्रमण को निकले हैं
भूपेन की तंग गली के मकान की खिड़कियों से झाँकते
हँसते-बिसूरते शिशु चेहरे भी नहीं हैं
सॉफ़्टी, पित्ज़ा, फ़्रेच-फ़्राइज़ खाते बेडौल मोटे बच्चे
वीडियो खेल के लिए कंप्यूटर की ख़ाली सीट के इंतज़ार में खड़े हैं
बहुत पीछे छूट गई है धूल और दया
बहुत पीछे छूट गए हैं अँधेरे में धूमिल प्रकाश के बीच
महाभारत देखते लोग
यहाँ स्वामीनाथन की वह चिड़िया कभी-कभी
तितलियों की तलाश में आया करती थी
लेकिन दो उल्लुओं ने जब से यहाँ बैठना शुरू किया है
वह ग़ायब हो गई है
लकड़ी के काले तख़्तों से चिने हुए शिकारे नहीं खड़े हैं नदी में
इसलिए यहाँ रामकुमार भी नहीं हैं
आठ-दस मंज़िला इमारतों के स्वर्ग की ओट में
चाँद छिपा खड़ा है
सूरज दूसरी तरफ़ से बाँहों में कस रहा है पानी की टंकियों को
मानो छत पर लड़ाई चल रही हो पानी और प्रकाश के लिए
एक बहुत बड़े जूते में रखे मोबाइल के लिए
चिंचलांकर यहाँ क्यों आएँगे
जूट से बने झूले की जगह यहाँ रोप-वे जो है
जीवन की सपाट सतह को लुभावनी रखने के लिए
अनेक सौंदर्य प्रसाधन हैं
लेकिन कटी-पिटी खरोंचें भरी आत्मा की मूरत पर
अनंत अतृप्ति की व्याकुलता है
शायद अभी तक यहाँ रवींद्र की बूढ़ी छाया
सँवलाई धूप में ठहरी है
दो
भिन्न-भिन्न कला वस्तुएँ इतनी भिन्न तो नहीं हैं
उनमें व्यर्थता का भाव लगभग एक जैसा है
उनके प्रशंसक ख़रीदार समान हैसियत के लोग हैं
वे जो बैंकों से मोटी रक़म उधार लेकर अपनी पूँजी बढ़ा रहे हैं
बीच के रास्ते से निकलते हुए
हाशिए के लोगों पर दयादृष्टि डाल रहे हैं
ऐसे करोड़ों लोगों के वास्ते जीवनयापन के
न्यूनतम साधन उपलब्ध करवा रहे हैं
फिर भी इन वस्तुओं पर अलग-अलग नाम क्यों लिखे हैं
हाशिए के व्यक्तियों को हाशिए पर नाम लिखने में
शायद लज्जा आई होगी
शायद नाम को संक्षिप्त करते वक़्त ख़ुद को बहुत लघु समझा होगा
हो सकता है वस्तुओं के खेल में यह मात्र प्रपंच हो
शायद यह नाम और वस्तु और उपभोक्ता के बीच में
एक आध्यात्मिक संवाद का संचार हो
क्योंकि उसकी क्रय-शक्ति नाम को कैसा भी अर्थ दे सकती है
तीन
‘प्रिय दर्शक, ये कला वस्तुएँ नहीं हैं
मेरे अंग हैं मेरे नाम के अभिप्रेत
जिन्हें किसी समुद्री तूफ़ान में फँसी नौका पर सवार नहीं होना है
बल्कि भव्य राजसी प्रासादों के सुसज्जित सर्वतोभद्रों
पाँच सितारा होटलों की शोभा बढ़ानी है
काश, ये सब मेरे बच्चे होते
जिन्हें वहाँ मेरी प्रशंसा सुनने का अवसर मिलता
काश, मेरे पास फ़िरौती के लिए इतनी पूँजी होती
कि इन बंधकों को उन हृदयहीनों से मुक्त करा पाता’
- पुस्तक : आशा नाम नदी (पृष्ठ 24)
- रचनाकार : ऋतुराज
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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