अपराध की सौ प्रजातियाँ हैं दृश्य में
apradh ki sau prjatiyan hain drishya mein
ज्याेति शोभा
Jyoti Shobha
अपराध की सौ प्रजातियाँ हैं दृश्य में
apradh ki sau prjatiyan hain drishya mein
Jyoti Shobha
ज्याेति शोभा
और अधिकज्याेति शोभा
किताबों से ऊबती हूँ
दृश्य देखती हूँ एक द्वीप के
खजूर की टहनियाँ हैं सूखी हुई
जो आकाश की अजर देह पर हँसती हैं
और पत्ते हैं जो दोने बन सकते हैं
बरसों की प्यास के लिए
शायद तुम आओगे अचानक
शुभकामनाएँ दोगे
अपराध की सौ प्रजातियाँ हैं दृश्य में
सबसे क्रूर है सूखी नदी में मछली का तैरना
तुम्हारा यह कहना कम क्रूर है
लिखना चाहिए
सिर्फ़ एक साँस में
आभूषणों को उतार कर गलाने की विधि
किनारे से दूर है तुम्हारा घर
क्योंकि तुम माटी के अनुयायी हो
अधिकतर मैं थक जाती हूँ तुम्हारे घर तक आते
लौट आती हूँ बीच रास्ते से
तब नखों में भी होती है माटी
और सफ़ेद समुद्र की तरह उफनता है हृदय
उस रोज़ बेतहाशा ख़ुश होती हूँ
औंधी पड़ी रहती है तुम्हारी क़मीज़
टँगे रहते हैं चित्र
एक में लालटेन को घेर दिया है बारिश से
एक में चंद्रमा को नीला रंग दिया है तुमने
उसे उलट दूँ तो बिल्कुल ऐसा लगेगा
जैसे डुबाई हुई नाव
फिर आ गई है ऊपर
और धँस गई है मेरी पुतली में
इस शहर से ऊबती हूँ
सोचती हूँ कैसा है तुम्हारा शहर
दृश्य में गाड़ी से उड़ती धूल है
बाहर तारे हैं
तुम कहते हो जोड़कर बनाओ कोई चित्र
और जाती हुई पीठ से कहती हूँ मैं
अभी वेग लिया है हवा ने, आँधी आने दो
बीच मझधार में बताऊँगी
सृजन करने के लिए ही तो आत्मा दी थी तुम्हें।
- रचनाकार : ज्योति शोभा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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