बत्ती बुझाकर जब फिर से चल दूँगा
धुँधली परिणतियों के विराट संसार की ओर,
जब हज़ारों नई-नई पीढ़ियाँ
भर देंगी इस संसार को नए-नए आश्चर्यों की जगमगाहट से,
पूरा कर देंगी प्रकृति के निर्माण कार्य को,
मेरी अस्थियों से तुम ढँकने देना यहाँ की नदियों को,
मेरी शरणस्थली बनने देना हरे-भरे जंगलों को।
मैं मरूँगा नहीं, दोस्त! फूलों की साँस में
अपने को मैं नज़र आऊँगा इस संसार में।
शोक में डूबा लेकिन मज़बूत सैकड़ों साल पुराना शाहबलूत
लिपट जाएगा अपनी जड़ों से मेरी जीवित आत्मा से।
मैं अपनी शाखाओं के बल लहराऊँगा अपने विचार
ताकि जंगल के अंधकार में वे प्रकट हों तुम्हारे ऊपर
और तुम जुड़े रह सको मेरी चेतना से।
ओ दूर के मेरे परपोते, मैं उड़ान भरूँगा तुम्हारे सिर के ऊपर से,
नन्हें पक्षी की तरह उड़ता रहूँगा आकाश में,
चमक उठूँगा तुम्हारे ऊपर दूर की बिजली की तरह,
गरमियों की बारिश की तरह बरसूँगा घास पर चमकते हुए।
जीवन से अधिक भव्य कुछ भी नहीं इस संसार में
क़ब्रों के ऊपर का ख़ामोश अँधेरा कुछ नहीं, ख़ाली बेचैनी है।
मैंने अपना जीवन जिया, अमन-चैन कहीं दिखाई नहीं दिया।
अमन-चैन संसार में है ही नहीं
हर जगह जीवन है और मैं हूँ।
यह सिर्फ़ मैं नहीं था जिसने जन्म लिया संसार में
जब पालने में से मेरी आँखों ने देखा था इस दुनिया की ओर।
पृथ्वी पर आकर मैं जब पहली बार सोचने लगा था
जब महसूस हुआ था जीवन का निष्प्राण स्फटिक
जिस पर पहली बार गिरी थी
किरणों के बीच थकी बारिश की एक बूँद।
नहीं मैं व्यर्थ ही नहीं जिया, इस संसार में।
मुझे अच्छा लगता है अंधकार में से देखना
किस तरह तू, मेरा परपोता, मुझे अपने हाथ ले
पूरा करेगा वे सब काम जो मुझसे पूरे नहीं हो सके।
- पुस्तक : नियति की अज्ञात इच्छाएँ (पृष्ठ 128)
- रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
- प्रकाशन : प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- संस्करण : 2016
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.