नाम रखने के कौन दे सकता है आदेश उन्हें?
एक जैसे कष्ट, दु:ख भी एक जैसे
लिखे हैं उनकी अदृश्य नियति में।
प्रकृति से बातें करता
चरागाह की ओर चल देता है बैल।
उसकी ख़ूबसूरत आँखों के ऊपर
चमक रहे होते हैं सफ़ेद सींग।
कुँआरी लड़की की तरह नन्हीं-सी नदी
छिप गई है घास के बीच,
मिट्टी में अपने पाँव डाल
वह कभी हँसती है, रो पड़ती है कभी।
क्यों रो रही है वह?
क्या तकलीफ़ है उसे?
मुस्कुरा देती है समूची प्रकृति,
नन्हें-नन्हें फूल एक-एक कर
हिलाने लगते हैं अपने छोटे-छोटे हाथ।
आँसू आते हैं बैल की आँखों में?
ज़रा-सी जान बची है उसमें
पर, चल रहा है शान से।
रेगिस्तान की हवा में
चक्कर लगा रही है नन्हीं-सी चिड़िया
किसी बहुत पुराने गीत की ख़ातिर
बहुत अभ्यास कर रही है अपने गले से।
जलधाराएँ चमक रही हैं उसके सामने,
हिल-डुल रहा है महान जंगल,
हँस रही है समूची प्रकृति
हर क्षण मृत्यु का वरण करते हुए।
- पुस्तक : नियति की अज्ञात इच्छाएँ (पृष्ठ 36)
- रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
- प्रकाशन : प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- संस्करण : 2016
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