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अंततः मुझे यह शहर छोड़ना पड़ रहा है

antat mujhe ye shahr chhoDna paD raha hai

गौरव सिंह

गौरव सिंह

अंततः मुझे यह शहर छोड़ना पड़ रहा है

गौरव सिंह

तुम्हारी छुअन के

हर अद्वितीय राग पर

मेरी यह रुग्ण देह आज

नर्तन को आतुर हो उठती है...!

मुझे भय है कि

स्पर्श की ये तरल स्मृतियाँ...

कल मुझे पाषाण की तरह जड़ कर डालेंगी...!

मैं नितांत भयभीत होकर तुमसे कह रहा हूँ—

कि मुझे छूने में थोड़ा संकोच किया करो!

जिन चुंबनों की

अलभ्य क़तारों से...

आज मेरा ललाट दमक उठता है...

मैं आशंकित हूँ...

कि इनके अभाव में

कल मेरा मस्तक सूखकर मुरझा जाएगा...!

इससे पहले ही

मैं इस निर्जलता का अभ्यस्त बन जाना चाहता हूँ—

सुनो! मुझे चूमने में कृपणता बरता करो!

हमारे अधरों का

ये व्यग्र संवाद

और एक-दूसरे के लिए

हमेशा उपलब्ध रहने की सदाशयता

हम हमेशा के लिए नहीं बचा सकते...

ये व्यग्रता

दोनों को ही निपट अकेला कर छोड़े...!

हम प्रेम करने वालों को यह समझना चाहिए

कि वसंत के अलावा भी कई ऋतुएँ होती हैं...

हमें आगामी ग्रीष्म की यातना सहने के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए!

कितनी बड़ी विडंबना है

कि हम प्रेम के लिए आजीवन प्रतीक्षारत रहे

और जीवन के पास प्रेम के लिए दो घड़ियाँ भी नहीं हैं

अंततः मुझे यह शहर छोड़ना पड़ रहा है!

स्रोत :
  • रचनाकार : गौरव सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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